कज़ाखस्तान में बवाल, पुतिन का गेमप्लान, जानसन की मुश्किलें और ओमिक्रान की सुनामी

नए साल की शुरुआत कुछ अच्छी नहीं हुई है. कैलेंडर बदल गया. महीना बदल गया. लेकिन महामारी नहीं गई. कोरोना के नए वैरिएंट- ओमिक्रान की एक और लहर में दुनिया डूब-उतरा रही है. इसके संक्रमण फैलने की रफ़्तार रोज नए रिकार्ड बना और तोड़ रही है.

यहाँ तक कि दुनिया जहान का यह लेखक भी संक्रमण से नहीं बच पाया. गनीमत सिर्फ यह है कि बीमारी की तीव्रता और मारकता पहले से कम है. एक या दो दिन बुख़ार, कुछ कफ़, सिर और बदन दर्द और उलझन! साथ में, कमज़ोरी, थकान और नींद के बीच उनींदापन.

यही नहीं, कुछ घबराहट, कुछ बेचैनी और एक अजीब फीलिंग भी कि आप कोविड पाजिटिव हैं. मित्रो और शुभचिंतकों की दस हिदायतें जो कई बार एक-दूसरे को काटती हुई होती हैं. सबके अपने अनुभव हैं. इस कन्फ्यूजन के बीच आक्सीजन लेवल जांचते रहिये. टेम्परेचर लेते रहिये.  

कुछ भी कहिये- मन पर एक तनाव और डर तो तारी रहता ही है. बीते अप्रैल-मई की भयावह स्मृतियाँ मन को बेचैन किए रहती हैं.      

इस बीच, विशेषज्ञ अनुमान लगा रहे हैं कि वायरस कमजोर पड़ रहा है. साथ ही, कुछ वैक्सीन का असर और कुछ हर्ड इम्युनिटी के बीच अब यह महामारी (पैंडेमिक) से स्थाई बीमारी (एंडेमिक) होने की ओर बढ़ चला है.  

लेकिन यह भी रिपोर्टें हैं कि ओमिक्रान संक्रमण की तेज रफ़्तार के बीच अनेकों मरीजों में बीमारी के गंभीर लक्षण दिख रहे हैं, उन्हें अस्पतालों में भर्ती कराना पड़ रहा है और कईयों को आक्सीजन और वेंटिलेटर की जरूरत पड़ रही है. अस्पताल तेजी से भर रहे हैं, खुद डाक्टर्स और पैरा-मेडिकल स्टाफ बड़ी संख्या में संक्रमित हो रहा है और स्वास्थ्य व्यवस्था दबाव में है. 

यह चेतावनी भी है कि अगर मौजूदा वैक्सीन गैर बराबरी बनी रही, अमीर देश वैक्सीन की जमाखोरी करते रहे और वायरस का बेकाबू संक्रमण ऐसे ही फैलता रहा तो नए वैरिएंट भी आते रहेंगे जिनमें कुछ डेल्टा की तरह घातक और खतरनाक भी हो सकते हैं.

हालाँकि यह एक क्लीशे हो गया है लेकिन दोहराव का खतरा उठाकर भी कहना जरूरी है- कोई भी सुरक्षित नहीं है, जब तक सभी सुरक्षित नहीं हैं. 

दुनिया को इस साल भी ‘नए नार्मल’ के मुताबिक ही चलना होगा जिसका मतलब है वैक्सीन, बूस्टर डोज, मास्क, सोशल डिस्टेंसिंग और भीड़-भाड़ से दूरी.

साफ़ है कि निश्चिंत होने का समय नहीं आया है. निश्चिंत होने की भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है या पड़ रही है.   

क्यों उबल रहा है कज़ाखस्तान?

महामारी के दौरान ही नहीं, राजनीति में भी आप निश्चिंत होने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं. कज़ाखस्तान की निरंकुश सरकार को उसकी निश्चिंतता भारी पड़ी.  

बीते सप्ताह देश कई हिस्सों खासकर सबसे बड़े शहर अल्माटी में पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में हुई भारी बढ़ोत्तरी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन फूट पड़े. इन प्रदर्शनों में खुद सरकार के मुताबिक, 164 से ज्यादा नागरिकों की मौत हो गई है और छह हजार से ज्यादा प्रदर्शनकारियों को हिरासत में ले लिया गया है.

साभार: डीडब्ल्यू

ये विरोध प्रदर्शन इतने व्यापक और आक्रामक थे कि राजधानी नूर सुल्तान (पुराना अस्ताना शहर) से लेकर अल्माटी तक अनेक शहरों में प्रदर्शनकारियों ने सरकारी बिल्डिंगों में आग लगा दी और हवाई अड्डे को कुछ समय के लिए कंट्रोल में ले लिया था.

ऐसा लग रहा था, जैसे देश में लम्बे समय से जमा असंतोष, गुस्सा और हताशा प्रेशर कुकर की तरह फट पड़ा हो. मोटे तौर पर ये प्रदर्शन स्वतःस्फूर्त थे, इनका कोई नेता नहीं था और न ही कोई राजनीतिक पार्टी इनके पीछे थी. इन प्रदर्शनों ने सरकार को भी हैरान कर दिया.  

जाहिर है कि प्रदर्शनकारी न सिर्फ पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में बढ़ोत्तरी से नाराज़ थे बल्कि वे उस सत्ता प्रतिष्ठान से भी नाराज़ थे जो पिछले तीस सालों से देश में निरंकुश राज चला रहा है जहाँ बोलने और विरोध की आज़ादी नहीं है, भ्रष्टाचार चरम पर है और आम लोगों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है.

आम लोगों को लगता है कि देश में तेल और गैस के अलावा दूसरे खनिजों से होनेवाली आय का बड़ा हिस्सा सत्ता प्रतिष्ठान पर कब्ज़ा करके बैठा मुट्ठी भर अभिजात्य तबका हड़प जा रहा है.       

लेकिन प्रदर्शनकारियों की सुनने के बजाय राष्ट्रपति तोकायेव की सरकार ने इस आन्दोलन को दबाने के लिए दमन का सहारा लिया है. राष्ट्रपति ने न सिर्फ प्रदर्शनकारियों को “आतंकवादी और विदेशी ताकतों से प्रभावित एजेंट” घोषित कर दिया है बल्कि पुलिस और सुरक्षा बलों को प्रदर्शनकारियों को देखते ही गोली मारने का अधिकार दे दिया है.

राष्ट्रपति तोकायेव (साभार: रुप्तली टीवी)

यही नहीं, तोकायेव ने देश में शांति बनाए रखने के नामपर रूस से भी मदद मांगी और राष्ट्रपति पुतिन ने बिना देर किए रूसी सैनिकों एक बड़े जत्थे को कज़ाखस्तान में उतार दिया है. इससे तोकायेव सरकार को फिलहाल, स्थिति काबू में करने में मदद मिल गई है. कज़ाखस्तान, रूस की अगुवाई में बने सीएसटीओ (कलेक्टिव सेक्युरिटी ट्रीटी आर्गेनाइजेशन) का सदस्य है.       

लेकिन इन प्रदर्शनों ने सरकार और देश की राजनीति को हिलाकर रख दिया है.  

असल में, सोवियत संघ के विघटन के बाद कज़ाखस्तान में बीते तीन दशकों से एकछत्र और लौह हाथों से राज कर रहे निरंकुश सत्ता प्रतिष्ठान को लगने लगा था कि उन्हें कौन चुनौती दे सकता है? देश में विपक्ष को पनपने नहीं दिया गया. स्वतंत्र मीडिया है नहीं. मानवाधिकारों की कोई इज्जत नहीं है. सही या गलत लेकिन मध्य एशिया के इस सबसे बड़े देश में राजनीतिक स्थिरता को उदाहरण की तरह पेश किया जाता था.

खासकर देश पर लगातार 28 सालों तक एकछत्र राज करने के बाद नूर सुल्तान नज़रबायेव ने जिस तरह से 2019 में राष्ट्रपति पद से इस्तीफा दे दिया और सीनेट के तत्कालीन स्पीकर कासिम जोमार्त तोकायेव को सत्ता सौंप दी, उसकी मिसाल दी जाती है. यह और बात है कि परदे के पीछे से नज़रबायेव ने सत्ता पर पकड़ बनाए रखी. देश की ताकतवर सुरक्षा परिषद की कमान उनके हाथों में ही रही और उन्हें “देश के नेता” का दर्जा हासिल था.

आश्चर्य नहीं कि लोगों के गुस्से के निशाने पर नज़रबायेव और उनका 28 सालों का राज था. नज़रबायेव ने देश में जिस “व्यक्तिपूजा” (पर्सनालिटी कल्ट) की राजनीति को आगे बढ़ाया और जिसका चरम था अस्ताना में नई राजधानी का नाम अपने नाम- नूर सुल्तान- पर रखना, उससे लोग आजिज़ आ चुके थे. लोगों में आम धारणा है कि नज़रबायेव और उनके परिवार के लोगों ने भ्रष्टाचार से अकूत धन कमाया है.  

लोगों को लगता है कि अभी भी परदे के पीछे से नज़रबायेव का राज ही चल रहा है. राष्ट्रपति तोकायेव को नज़रबायेव का ही आदमी माना जाता रहा है. प्रदर्शनकारियों ने ताल्डीकोरगन में नज़रबायेव की आदमकद प्रतिमा गिराने की कोशिश की. अधिकांश शहरों में प्रदर्शनकारी “बूढ़े नेता-गद्दी छोड़ो” जैसे नारे लगाए.

इसके बावजूद कज़ाखस्तान में सत्ता के शांतिपूर्ण हस्तांतरण को एक माडल माना जाता रहा है. इसकी वजह यह है कि आमतौर पर जिन भी देशों में किसी निरंकुश तानाशाह का लम्बा राज चला है, वहां उसके किसी भी कारण (मौत या इस्तीफा या तख्तापलट) से सत्ता से हटने के बाद सत्ता प्रतिष्ठान के ध्वस्त होने में ज्यादा समय नहीं लगा है. माना जाता है कि इस कारण भी कई बार तानाशाह सत्ता नहीं छोड़ते हैं क्योंकि उन्हें डर लगता है कि उनका बनाया सत्ता प्रतिष्ठान ढह न जाए और उन्हें उसकी कीमत न चुकानी पड़े.

न्यूयार्क टाइम्स की एक रिपोर्ट में एक अध्ययन के हवाले से कहा गया है कि ऐसे 70 फीसदी मामलों में जब भी तानाशाह/निरंकुश नेता सीन से हटा, कुछ ही महीनों में सत्ता प्रतिष्ठान ढह गया और देश राजनीतिक अस्थिरता में फंस गया. लेकिन कज़ाखस्तान में नज़रबायेव ने जिस तरह राष्ट्रपति की कुर्सी छोड़कर भी सत्ता का नियंत्रण अपने हाथों में रखा, उसे एक माडल की तरह माना जा रहा था. रिपोर्टों के मुताबिक, खुद रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन भी आगे चलकर कज़ाख़-नज़रबायेव माडल को अपनाने पर विचार कर रहे थे.   

नज़रबायेव (साभार: विकीपीडिया)

लेकिन हालिया विरोध प्रदर्शनों ने कज़ाखस्तान के सत्ता प्रतिष्ठान की स्थिरता की सच्चाई सामने ला दी है. हालाँकि इन विरोध प्रदर्शनों का फायदा उठाकर राष्ट्रपति तोकायेव ने अपनी राजनीतिक स्थिति थोड़ी मजबूत कर ली है. उन्होंने नज़रबायेव विरोधी माहौल के बहाने न सिर्फ ताकतवर सुरक्षा परिषद से नज़रबायेव को हटाकर खुद कमान हाथ में ले ली है बल्कि सरकार में कई अहम पदों से भी नज़रबायेव के रिश्तेदारों और करीबियों को हटा दिया है.

इससे तोकायेव को न सिर्फ विरोध प्रदर्शनों को शांत करने में कुछ हद तक मदद मिली है बल्कि सरकार का उनका नियंत्रण भी मजबूत हुआ है. ऐसा लगता है कि रूस भी तोकायेव के साथ खड़ा है क्योंकि राजनीतिक रूप से कमजोर और उसकी मदद पर आश्रित तोकायेव उसके लिए ज्यादा मुफ़ीद हैं.

लेकिन तोकायेव मौजूदा अस्थिर राजनीतिक माहौल, लोगों के अन्दर बढ़ते असंतोष और सत्ता प्रतिष्ठान के अन्दर मचे घमासान के बीच कितने दिन टिक पायेंगे, इस बारे में अभी कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी.

तोकायेव की असली परीक्षा अब शुरू हुई है.      

नाटो, रूस-अमेरिका और यूक्रेन: पुतिन का गेमप्लान  

इस सप्ताह दुनिया की निगाहें रूस-यूक्रेन और उस बहाने रूस-अमेरिका (नाटो) टकराव की ओर भी लगी हुईं हैं. पश्चिमी मीडिया ऐसे कयासों से भरा हुआ है कि नाटो को सबक सिखाने के लिए पुतिन कभी भी यूक्रेन पर हमला कर सकते हैं. हालाँकि ये कयास पिछले डेढ़ महीने से सुर्ख़ियों में हैं और रूस-यूक्रेन सीमा पर तनाव भी बहुत ज्यादा है.

लेकिन इस तनाव के बीच रूस और अमेरिका के बीच शिखर स्तर से लेकर शीर्ष अधिकारी स्तर पर वार्ताओं का दौर भी जारी है. पिछले महीने के आखिर में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाईडन और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बीच तीन घंटे की वर्चुअल मुलाकात हुई. इस सोमवार को जेनेवा में रूस और अमेरिकी अधिकारियों की बातचीत हुई है. हालाँकि बातचीत में डेडलाक बना हुआ है लेकिन दोनों देश बातचीत जारी रखने के लिए राजी हैं. इस सप्ताह बुधवार और गुरुवार को पहले ब्रसेल्स और फिर वियेना में आगे की बातचीत होगी.

असल में, रूस अड़ा हुआ है कि अमेरिका और उसके यूरोपीय साथियों को बिना किसी किन्तु-परन्तु के यह स्पष्ट वायदा करना होगा कि अमेरिकी नेतृत्ववाली सैन्य संधि- नाटो का पूर्व में विस्तार नहीं होगा. खासकर पहले सोवियत रूस का हिस्सा रहे और अब रूस के पड़ोसी देशों जैसे यूक्रेन और जार्जिया आदि देशों को नाटो में शामिल नहीं किया जाएगा और न ही इन देशों में नाटो या अमेरिकी सैन्य गतिविधियाँ होंगी. 

साथ ही, रूस यह भी चाहता है कि अमेरिका पूर्वी यूरोप और मध्य एशिया के देशों को उसके प्रभाव क्षेत्रवाले देशों के रूप में स्वीकार करे और वहां घुसने की कोशिश न करे. रूस का आरोप है कि अमेरिका और नाटो का विस्तार उसकी सुरक्षा के लिए खतरा है जिसे वह किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं करेगा. रूस, अमेरिका और नाटो को यह बार याद दिला रहा है कि वे अपने पिछले वायदों से मुकर रहे हैं जिसमें रूस को आश्वस्त किया गया था कि नाटो का पूर्व में विस्तार नहीं होगा और उसकी सुरक्षा चिंताओं का पूरा ध्यान रखा जाएगा.

लेकिन अमेरिका इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं है. वह रूस को घेरने के लिए नाटो के विस्तार और खासकर यूक्रेन को देर-सवेर नाटो की सदस्यता देने पर अड़ा हुआ है. लेकिन उसे यह भी पता है कि आज का रूस, 90 के दशक का कमजोर और राजनीतिक रूप से अस्थिर रूस नहीं है जिसका फायदा उठाकर अमेरिका और नाटो ने न सिर्फ तेजी से अपना विस्तार किया बल्कि रूस को रणनीतिक रूप से घेरने में भी कामयाब रहे.

अब स्थितियां बदल गईं हैं. पुतिन रूसी राष्ट्रवाद के घोड़े पर सवार हैं और रूसी राजनीति में उनकी ताकत का स्रोत यही राष्ट्रवाद है. वे गाहे-बगाहे सोवियत संघ के दौर में रूस की ताकत और प्रतिष्ठा की याद दिलाते रहते हैं. नाटो के विस्तार और यूक्रेन को नाटो की सदस्यता के मुद्दे पर अपने आक्रामक रवैये के जरिये वे रूसी लोगों को सन्देश दे रहे हैं कि रूस की सुरक्षा के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं. 

पुतिन इसकी एक झलक 2015 में दिखा चुके हैं जब उन्होंने एक सैन्य कार्रवाई में यूक्रेन का हिस्सा रहे क्रीमिया को रूस में मिला लिया था. उस समय भी अमेरिका ने खूब तेवर दिखाए, रूस पर प्रतिबंधों की घोषणा की लेकिन इससे रूस और पुतिन की सेहत पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा. क्रीमिया को नियंत्रित करने में पुतिन को इसलिए भी दिक्कत नहीं हुई क्योंकि उसकी आबादी में 65 फीसदी से भी ज्यादा रूसी मूल के नागरिक थे.

यूक्रेन की आबादी में भी खासकर यूक्रेन के पूर्वी हिस्से में रूसी मूल के नागरिकों की संख्या अच्छी-खासी है. उनकी सहानुभूति रूस के साथ है. तथ्य यह है कि यूक्रेन के पूर्वी हिस्से में रूस की सीमा से लगते इलाके में रूसी मूल के लोग लम्बे समय से अलगाववादी मुहिम चला रहे हैं जिसे रूस का खुला समर्थन भी है. यह इलाका एक तरह से इन्हीं अलगाववादी शक्तियों के नियंत्रण में है.    

असल में, पुतिन का गेमप्लान यह लगता है कि यूक्रेन पर हमले का दबाव बनाकर रूस, अमेरिका और नाटो को तात्कालिक रूप से न सिर्फ आगे विस्तार करने से रोक सकता है बल्कि इस मुद्दे को सुलझाने के लिए अमेरिका को वार्ता की मेज पर आने के लिए मजबूर कर सकता है. रूस इस मामले में काफी हद तक कामयाब हुआ है कि उसने नाटो के विस्तार और रूस की सुरक्षा के मामले को मुख्य मुद्दा बना दिया है.

अमेरिका और नाटो को पीछे हटकर इस मुद्दे पर बातचीत के लिए राजी होना पड़ा है जिसपर पहले वे कोई बात करने के लिए ही तैयार नहीं थे. यही सही है कि अमेरिका और नाटो ने रूस की मांगें स्वीकार नहीं की हैं लेकिन रूस ने उन्हें इस मुद्दे पर बातचीत के लिए मजबूर करके एक मनोवैज्ञानिक जीत हासिल कर ली है.

हालाँकि यह भी सही है कि अमेरिका और नाटो, रूस को बातचीत में उलझाये रखकर किसी तरह से यूक्रेन के मोर्चे पर तनाव कम करना और मामले को टाले रखना चाहते हैं. रूस इस खेल को समझ रहा है, इसलिए वह बातचीत में शामिल होकर भी बार-बार यह बयान दे रहा है कि उसके धैर्य की परीक्षा न ली जाए.

असल में, पुतिन दुनिया को यह दिखाना चाहते हैं कि उन्होंने नाटो के विस्तार पर रोक और रूस की सुरक्षा के मुद्दे के समाधान के लिए कूटनीति और बातचीत को पर्याप्त मौका दिया है. वे यह साबित करना चाहते हैं कि अमेरिका और नाटो इस मुद्दे का समाधान को लेकर गंभीर और ईमानदार नहीं हैं.  

इस “वार आफ नर्व्स” में फिलहाल, पुतिन भारी दिखाई पड़ रहे हैं. रूस को उलझाये रखने की कोशिश में अमेरिका खुद पुतिन के बिछाए जाल में फंस गया है.

जाहिर है कि दुनिया की निगाहें पुतिन के अगले दांव पर लगी हैं.                        

ब्रिटेन: क्या जानसन की विदाई नजदीक है?

उधर, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जानसन की राजनीतिक मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं. विवाद और खुलासे उनका पीछा नहीं छोड़ रहे हैं. वे हर महीने एक नए विवाद या खुलासे में फंसते दिख रहे हैं. इस खुलासे ने उनकी मुश्किलें काफी बढ़ा दी हैं कि जब बीते साल उनकी सरकार पूरे देश में कोरोना से बचाव के लिए नागरिक गतिविधियों पर प्रतिबन्ध लगा रही थी, उस समय नियमों और प्रतिबंधों को तोड़कर उनके आवास में स्टाफ की पार्टी हुई. 

जानसन की पार्टी के अन्दर उनके खिलाफ विरोध बढ़ रहा है. उनकी लोकप्रियता लगातार गिर रही है. बीते महीने जानसन की कंजर्वेटिव पार्टी नार्थ श्रोपशायर की सीट पर हुए उपचुनाव में हार गई. यह कंजर्वेटिव पार्टी की पारंपरिक और सबसे सुरक्षित सीटों में मानी जाती रही है जहाँ पार्टी पिछले 200 सालों से हारी नहीं थी.

नतीजा, जानसन के इस्तीफे की मांग जोर पकड़ रही है.

कोरोना-ओमिक्रान की सुनामी

यूरोप और अमेरिका कोरोना के नए वैरिएंट- ओमिक्रान की सुनामी के बीच से गुजर रहे हैं. बीते शुक्रवार को अमेरिका में कोरोना संक्रमण के रिकार्ड 14 लाख से ज्यादा नए मामले आये. अमेरिका में औसतन हर दिन 7 लाख नए मामले सामने आ रहे हैं. अस्पताल संक्रमित लोगों से भरे पड़े हैं. स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरा गई है.

इधर, विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि मार्च तक यूरोप की 50 प्रतिशत आबादी ओमिक्रान से संक्रमित हो जायेगी. यूरोप के भी हालात दिन पर दिन ख़राब हो रहे हैं. सरकारें वैक्सीन मैंडेट और प्रतिबंधों पर जोर दे रही हैं. लेकिन वैक्सीन विरोधी फिर भी पीछे हटने को तैयार नहीं हैं.

इन सबका वैश्विक अर्थव्यवस्था पर असर पड़ना भी तय है.

चलते-चलते

समय बदल रहा है. अमेरिका भी बदल रहा है. खबर है कि अमेरिका अपनी मशहूर अश्वेत और नारीवादी कवियित्री माया एंजेलो पर सिक्का निकालने जा रहा है. वे पहली श्वेत महिला हैं जिन्हें अमेरिकी सिक्के पर जगह मिलेगी.

साभार: न्यूयार्क टाइम्स

यह माया एंजेलो की मशहूर कविता- मैं जानती हूँ पिंजरे का पंछी क्यों गाता है- आपके लिए प्रस्तुत है:   

     आज़ाद पंछी सवारी करता है हवा की
उड़ता है हवा के साथ प्रवाह के थमने तक,
गोते लगाता है सूर्य-रश्मियों में
और करता है साहस
ऊँचाइयों को नापने का।
लेकिन अपने छोटे से पिंजरे में
बेचैन घूमता पंछी शायद ही कुछ देख पाता है
अपने उन्माद की सलाखों के पार,
उसके पर कतर दिए गए हैं
बाँध दिए गए हैं उसके पैर भी
इसीलिए, वह गाता है।
पिंजरे का पंछी गाता है कँपकँपाते स्वर में
उन अज्ञात चीज़ों के बारे में
जिनकी चाहत अभी बाक़ी है,
दूर पहाड़ी पर सुनाई देती है उसकी धुन
जब वह गाता है मुक्ति का गीत।
आज़ाद पंछी सोचता है
ठण्डी हवा के एक और झोंके के बारे में
और पेड़ों के उच्छवास से गुज़रती
पुरवाई के बारे में,
उसे याद आते है
रश्मिप्रभा में नहाए बगीचे में रेंगते ताज़ा कीड़े
और वह पुकारता है आसमान को
अपने ही नाम से।
पर पिंजरे का पंछी खड़ा रहता है
अपने ही सपनों की क़ब्र पर,
एक दु:स्वप्न से उपजी चीख़ पर
थरथरा उठती है उसकी परछाई भी,
उसके पर कतर दिए गए हैं
बाँध दिए गए हैं उसके पैर भी
इसीलिए, वह गाता है।
पिंजरे का पंछी गाता है कँपकँपाते स्वर में
उन अज्ञात चीज़ों के बारे में
जिनकी चाहत अभी बाक़ी है,
दूर पहाड़ी पर सुनाई देती है उसकी धुन
जब वह गाता है मुक्ति का गीत।

(माया एंजेलो की इस मशहूर कविता का यह अनुवाद कविता कृष्णपल्लवी का है और इसे साभार कविताकोश से लिया है)               

                      

मिलते हैं अगले सप्ताह. आप अपना फीडबैक भेजते रहिये.

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आनंद प्रधान

देश-समाज की राजनीति, अर्थतंत्र और मीडिया का अध्येता और टिप्पणीकार