क्या कोविड-19 महामारी का अंत निकट है? ....गैर बराबरी की महामारी से कैसे निपटें?

कोरोना महामारी के साथ घबराहट, बेचैनी, अनिश्चितता और प्रतिबंधों के बीच जीती-मरती दुनिया को दो साल से अधिक हो गए हैं. लेकिन महामारी के अंत के संकेत कहीं नहीं दिख रहे हैं. ओमिक्रान की लहर रोज नए रिकार्ड बना रही है.

इस बीच, कोरोना की ओमिक्रान लहर के बीच डूबती-उतराती दुनिया की थकान, ऊब और हताशा बोलने लगी है. कोरोना वायरस और महामारी के खिलाफ युद्ध छेड़ने और उसे इस लड़ाई में हराकर उसपर जीत दर्ज करने का नारा देनेवाले नेताओं के सुर धीमे पड़ने लगे हैं.

कोविड-19 के साथ जीने के लिए तैयार हो जाएँ?          

यही नहीं, कुछ के सुर और तेवर बदलने लगे हैं. स्पेन के प्रधानमंत्री पेड्रो सांचेज़ उनमें से एक हैं. वे चाहते हैं कि तकनीकी तौर पर वैज्ञानिकों और स्वास्थ्यकर्मियों के साथ-साथ यूरोपीय देशों के नेताओं के बीच कोविड-19 महामारी से निपटने की रणनीति में बदलाव की जरूरत पर बहस शुरू हो.

सांचेज़ का तर्क है कि हाल के दिनों में कोविड-19 की मारकता में कमी देखी गई है और अब समय आ गया है जब इसे महामारी (पैन्ड़ेमिक) मानकर नहीं बल्कि फ्लू जैसी बीमारी (एंडेमिक) मानकर इसकी ट्रैकिंग और इलाज किया जाए.

पेड्रो सांचेज़

साफ़ है कि सांचेज़ कोविड-19 महामारी को अब फ्लू जैसी एक और बीमारी की तरह मानकर उसके साथ जीने की वकालत कर रहे हैं. इस तरह वे चाहते हैं कि कोविड-19 महामारी से निपटने की मौजूदा रणनीति बदले जिसमें सरकारों का सारा ध्यान, उर्जा और संसाधन महामारी से निपटने में लगा हुआ है.

उन्हें लगता है कि कोविड-19 से निपटने की रणनीति में बदलाव से कई प्रतिबंधों के हटने से जनजीवन सामान्य होगा, आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ेंगी और साथ ही, सरकारों को लोगों की आजीविका और अर्थव्यवस्था के साथ दूसरे जरूरी मुद्दों पर ध्यान देने का मौका मिल सकेगा.              

सांचेज़ दुनिया के उन गिने-चुने नेताओं में से हैं जिन्होंने कोविड-19 महामारी से निपटने की रणनीति में बदलाव की बात खुलकर कही है. लेकिन कई देशों में इस बदलाव की सुगबुगाहट चल रही है. चीन और न्यूजीलैंड जैसे कुछ चुनिंदा देशों को छोड़कर अब कोई जीरो कोविड-19 की रणनीति पर नहीं चल रहा है. ज्यादातर देशों में ओमिक्रान के तेज संक्रमण के बावजूद अब लाकडाउन और कड़े प्रतिबंधों की बात कोई नहीं करता.

ज्यादातर नेताओं और विशेषज्ञों ने कोविड-19 के सफाए की बातें करनी बंद कर दी हैं. अधिकतर देशों में ज्यादा जोर टीकाकरण, मास्क, सोशल डिस्टेंसिंग और टेस्टिंग के जरिये कोविड-19 के प्रबंधन और उसे अनियंत्रित होने से रोकने पर है.  

इस मामले में ब्रिटेन कई कदम आगे निकल गया है. विवादों और पार्टीगेट स्कैंडल में फंसे प्रधानमंत्री बोरिस जानसन ने सबको चौंकाते हुए इस सप्ताह संसद में एलान किया है कि ओमिक्रान वैरिएंट के संक्रमण को काबू में करने के लिए लगाए गए अधिकांश प्रतिबन्ध, वर्क फ्रॉम होम और सार्वजनिक स्थानों में मास्क की अनिवार्यता अगले गुरुवार से खत्म हो जायेगी.

क्या ओमिक्रान महामारी के अंत का संकेत है?

उधर, अमेरिका में राष्ट्रपति जो बाइडन को राष्ट्रपति पद की शपथ लेने से पहले कोविड-19 से निपटने की रणनीति बनाने में मदद करनेवाले डाक्टरों की टीम के कई सदस्यों ने हाल में एक शोधपत्र में महामारी से निपटने की रणनीति में बदलाव की जरूरत बताई है. उनका कहना है कि कोविड-19 वायरस यहीं रहनेवाला है और अब समय आ गया है जब इस “नए नार्मल” के साथ रहने की तैयारी की जाए.

कहने का अर्थ यह कि कोरोना महामारी को अब एक इमरजेंसी की तरह नहीं देखा जाना चाहिए और न ही उससे निपटने का सारा फोकस उसे पूरी तरह खत्म करने के असंभव लक्ष्य पर होना चाहिए. इसके बजाय अब जोर टीकाकरण और बेहतर टीके की खोज, सर्वसुलभ-सस्ते टेस्टिंग और इलाज और स्टैण्डर्ड मास्क के साथ बेहतर निगरानी (सर्विलांस) और जीनोम सीक्वेंसिंग पर होना चाहिए. इससे न सिर्फ कोविड-19 का बेहतर प्रबंधन और नियंत्रण हो सकेगा बल्कि उसके नए वैरिएंट और भविष्य के दूसरे नए खतरनाक वायरसों का तुरंत पता चल सकेगा.

उधर, कई विशेषज्ञों को लग रहा है कि ओमिक्रान इस बात का संकेत है कि वायरस की मारकता कम हो रही है और यह धीरे-धीरे कमजोर पड़ता जाएगा. इंडियन एक्सप्रेस में एम्स के डाक्टर गणेसन कार्थिकेयन ने एक आशावादी अनुमान प्रकट किया है कि जैसे पिछली इन्फ़्लूएन्ज़ा महामारी कमजोर पड़ी और धीरे-धीरे एक मौसमी फ्लू में बदल गई, ओमिक्रान कुछ उसी तरह की उम्मीद पैदा कर रहा है.

इसी तरह अमेरिका के इंस्टीच्यूट फार हेल्थ मैट्रिक्स और इवेलुएशन के क्रिस्टोफर जे एल मरी ने लांसेट में एक लेख में लिखा है कि कोविड-19 जारी रहेगा लेकिन महामारी का अंत निकट है. उनका कहना है कि कोविड-19 का वायरस बना रहेगा और भविष्य में उसके नए वैरिएंट भी आते रहेंगे लेकिन पूरी दुनिया में एक बड़ी आबादी के पहले से संक्रमित होने, व्यापक टीकाकरण और नए और ज्यादा सटीक टीकों और एंटी-वायरल दवाइयों की खोज और भविष्य की लहरों के समय असुरक्षित लोगों को अपने बचाव जैसे मास्क और सोशल डिसटेंसिंग की जानकारी के कारण उसका घातक असर कम हो जाएगा.

मरी के मुताबिक, कोविड-19 भी एक और बीमारी बनकर रह जायेगी जिसका प्रबंधन समाजों और स्वास्थ्य व्यवस्था को करना होगा. वह दौर अब खत्म होने को है जिसमें कोविड-19 को नियंत्रित करने के लिए सरकारों और समाजों को अभूतपूर्व कदम उठाने पड़े. ओमिक्रान के बाद बीमारी तो आएगी लेकिन महामारी नहीं आएगी.  

एंथनी फ़ाची (साभार: द हिन्दू)

उधर, राष्ट्रपति जो बाइडन के मुख्य मेडिकल सलाहकार डा. एंथनी फ़ाची ने भी थोड़ा हिचकिचाते हुए कुछ शर्तों के साथ उम्मीद जाहिर की है कि ओमिक्रान शायद महामारी के अंत की शुरुआत हो.

क्या “वैक्सीन रंगभेद” इन उम्मीदों पर पानी फेर देगा?    

लेकिन इन टिमटिमाती उम्मीदों के बीच बहुतेरे विशेषज्ञ अभी भी इसे एक और बीमारी (एंडेमिक) मानने के लिए तैयार नहीं हैं. उनके मुताबिक, इसके साथ जीने की बातें करना एक तरह से कोविड-19 वायरस के आगे घुटने टेकना/हार मानना है. उनकी चेतावनी है कि कोविड-19 के खिलाफ सावधानी और सतर्कता छोड़ने और इसे मौसमी फ्लू मानने की भूल भारी पड़ सकती है.

इन विशेषज्ञों का दावा है कि कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई में कोई भी ढील देना खतरे से ख़ाली नहीं है. हालाँकि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के महानिदेशक मानते हैं कि इस साल जुलाई तक महामारी पर नियंत्रण पाया जा सकता है और उसकी मारकता को कम किया जा सकता है बशर्ते दुनिया के सभी देशों में कम से कम 70 फीसदी आबादी का टीकाकरण हो जाए.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रमुख डा. टेद्रोस (साभार: कौंसिल आन फोरेन रिलेशन)

लेकिन क्या दुनिया 2022 में और खासकर जुलाई तक इस लक्ष्य को हासिल कर पाएगी? डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, इस साल 13 जनवरी तक उसके 194 सदस्य देशों में 36 देशों में 10 फीसदी से कम और 88 देशों में 40 फीसदी से कम आबादी का टीकाकरण हो पाया है. इससे साफ़ है कि दुनिया के 60 फीसदी से ज्यादा देश लक्ष्य से बहुत दूर हैं. इस साल भी वे इसके करीब पहुँच पायेंगे, इसकी उम्मीद कम ही दिखती है.  

कारण साफ़ है. दुनिया के अमीर देश वैक्सीन की जमाखोरी कर रहे हैं. अमीर देशों में वैक्सीन का तीसरा और चौथा बूस्टर डोज लग रहा है. वैक्सीन गैर बराबरी घट नहीं रही है. दुनिया के गरीब और विकासशील देश एक तरह की “वैक्सीन रंगभेद” का सामना कर रहे हैं. रिपोर्टें बता रही हैं कि अमीर देशों की वैक्सीन जमाखोरी के कारण इस साल भी कोई 3 अरब वैक्सीन डोज की किल्लत हो सकती है.

अफ़सोस, अमीर देश महामारी के सबसे बड़े सबक को अब भी अनदेखा कर रहे हैं- जब तक सब सुरक्षित नहीं हैं, तब तक कोई सुरक्षित नहीं है!

गैर बराबरी की बढ़ती महामारी की एक ही वैक्सीन- टैक्स..टैक्स..टैक्स!        

क्या आप जानते हैं कि इस महामारी के दौरान अमेज़ान के मालिक जेफ़ बेज़ास की सम्पत्ति में इतनी बढ़ोत्तरी हुई है कि उससे दुनिया के सभी लोगों को कोविड-19 का टीका लगाया जा सकता है?

असल में, कोविड-19 महामारी के दौरान दुनिया के अरबपतियों की संपत्ति में छप्पर फाड़ बढ़ोत्तरी हुई है. एक रिपोर्ट के मुताबिक, अकेले इन डेढ़-दो सालों में दुनिया के 2755 अरबपतियों की सम्पत्ति में जितनी बढ़ोत्तरी हुई है, वह पिछले 14 सालों में हुई बढ़ोत्तरी के बराबर है.    

इस सबके बीच कितनी भी क्षीण क्यों न हो लेकिन एक उम्मीद है कि इस साल शायद कोविड-19 महामारी की विदाई हो सकती है या कम से कम उसकी मारकता काफी कम हो जायेगी.

यह गैर बराबरी जानलेवा है

लेकिन इस आर्थिक गैर बराबरी या असमानता की उस महामारी का क्या करें जो न सिर्फ लगातार बढ़ती और तीखी होती जा रही है बल्कि बड़े पैमाने पर लोगों की जान भी ले रही है.

आक्सफैम की ताज़ा रिपोर्ट रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया भर में हर चौथे सेकेंड, जी, आपने ठीक सुना, हर चौथे सेकेण्ड में होनेवाली एक मौत में आर्थिक गैर बराबरी की बड़ी भूमिका है.  

यह किसी से छुपा नहीं है कि दुनिया भर में अमीर-गरीब के बीच की खाई लगातार बढ़ती ही जा रही है. आक्सफैम की यह रिपोर्ट इसकी तस्दीक करती है. रिपोर्ट के मुताबिक, जब से महामारी शुरू हुई है और दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाएं और अरबों कामगारों की आजीविका गहरे संकट में है, इस दौरान दुनिया के दस सबसे अधिक अमीर अरबपतियों की सम्पत्ति में दुगुने से भी ज्यादा की बढ़ोत्तरी हुई है. वहीँ, दुनिया के 99 फीसदी लोगों की आय में गिरावट दर्ज की गई है. 

आक्सफैम यह रिपोर्ट स्विट्ज़रलैंड के दावोस में अरबपति कारोबारियों-उद्योगपतियों, कंपनियों के सीईओ, प्रधानमंत्रियों/राष्ट्रपतियों और नीति निर्माताओं की सालाना बैठक के समानांतर जारी करती है ताकि उनका ध्यान इस ओर खींचा जा सके.

कहना मुश्किल है कि इस रिपोर्ट ने दुनिया के ताकतवर सुपर अमीरों और राष्ट्राध्यक्षों का कितना ध्यान खींचा है लेकिन इस रिपोर्ट ने इस कड़वी सच्चाई पर से पर्दा हटा दिया है कि इस घातक महामारी के दौरान सिर्फ महामारी से ही नहीं, तेजी से बढ़ती आर्थिक गैर बराबरी भी लोगों की जान ले रही है.

कुछ तथ्यों पर गौर कीजिए:

-    दुनिया के 252 सुपर अमीरों की कुल सम्पत्ति अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका और कैरेबियाई देशों की सभी महिलाओं और लड़कियों की संपत्ति से भी अधिक है.

-    1995 के बाद से दुनिया के टाप एक फीसदी अमीरों ने निचले पायदान पर बैठे 50 फीसदी लोगों की तुलना में 20 गुना ज्यादा वैश्विक सम्पदा पर कब्ज़ा जमाया है.

-    34 लाख और अश्वेत अमेरिका नागरिक आज जीवित होते अगर उनकी भी जीवन अपेक्षा (लाइफ एक्सपेक्टेन्सी) श्वेत अमेरिकी नागरिकों जितनी होती. यह गैर बराबरी का नतीजा है.

-    दुनिया के 20 सबसे अमीर अरबपति दुनिया के सबसे गरीब एक अरब लोगों की तुलना में 8 हजार गुना कार्बन उत्सर्जन करते हैं.  

-    जब से महामारी शुरू हुई है, हर 26 घंटे में एक अरबपति पैदा हो रहा है. दूसरी ओर, 16 करोड़ लोग फिर से गरीबी रेखा के नीचे चले गए हैं.              

जाहिर है कि सुपर अमीरों की सम्पत्ति में यह छप्पर फाड़ बढ़ोत्तरी किसी संयोग या दुर्घटना या ईश्वरीय वरदान या उनकी कड़ी मेहनत का नतीजा नहीं है.

क्या है इस गैर बराबरी से निपटने का उपाय?

दरअसल, यह दुनिया भर की सरकारों की कार्पोरेट समर्थक नव उदारवादी आर्थिक नीतियों खासकर टैक्स नीतियों का नतीजा है. इस मायने में सुपर अरबपतियों की रॉकेट की रफ़्तार से बढ़ती संपत्ति एक सोचा-समझा राजनीतिक चुनाव है जो दुनिया भर की कार्पोरेट समर्थक सरकारों ने किया है.

क्या कोई रास्ता या तरीका है, इस बढ़ती हुई आर्थिक गैर बराबरी को कम करने का जो खुद एक महामारी बनती जा रही है और लोगों की जान ले रही है?

जी, बिलकुल है और वह कोई राकेट विज्ञान नहीं है. इसका एक ही तरीका है कि सुपर अमीर अरबपतियों से वाज़िब टैक्स वसूला जाए.

अच्छी बात यह है कि दुनिया के सौ से ज्यादा सुपर अमीरों ने एक खुला पत्र लिखकर दुनिया भर की सरकारों से कहा है कि उनसे और टैक्स वसूला जाए ताकि कोविड-19 महामारी और बढ़ती आर्थिक गैर बराबरी से निपटा जा सके. इन अरबपति अमीरों ने एक देशभक्त करोड़पतियों का समूह- पैट्रियाटिक मिलिनायर ग्रुप बनाया है जिसकी ओर से यह अपील जारी की गई है.

इसके साथ मिलकर आक्सफैम, इंस्टीच्यूट फार पॉलिसी स्टडी और फाइट इनइक्वालिटी ने एक प्रस्ताव भी पेश किया है जिसके मुताबिक अगर 50 लाख डालर से अधिक की सम्पत्तिवाले अमीरों पर 2 फीसदी की दर से, 5 करोड़ डालर से अधिक की सम्पत्तिवालों पर 3 फीसदी और एक अरब डालर से ज्यादा की सम्पतिवाले सुपर अमीरों पर 5 फीसदी की दर से सम्पत्ति कर लगाया जाए तो सालाना 2.52 खरब डालर की टैक्स आय जुटाई जा सकती है.

यह टैक्स आय दुनिया के 2.3 अरब गरीबों को गरीबी रेखा से बाहर निकालने, पूरी दुनिया के लिए वैक्सीन की व्यवस्था करने और गरीब देशों के 3.6 अरब लोगों के लिए यूनिवर्सल स्वास्थ्य सेवा और सामाजिक सुरक्षा का इंतजाम करने के लिए पर्याप्त होगी.

इसी तरह अगर इस प्रस्तावित सम्पत्ति कर की दर को और प्रगतिशील और आर्थिक समानता के लक्ष्य के साथ बढ़ाकर 2, 5 और 10 फीसदी कर दिया जाए तो इससे सालाना 3.62 खरब डालर की टैक्स आय जुटाई जा सकती है जिससे दुनिया भर में गरीबी, बीमारी और भूखमरी को मिटाने में बहुत मदद मिल सकती है.

लेकिन क्या सरकारें सुन रही हैं? क्या वे इन सुपर अमीरों पर सम्पत्ति कर लगाने के लिए तैयार हैं?

और यह भी कि क्या भारत जैसे देशों में कोई देशभक्त अरबपति नहीं है जो कहे कि उनकी सम्पत्ति पर सरकार संपत्ति कर लगाए? याद रहे कि भारत में सम्पत्ति कर को 2016 में खत्म कर दिया गया था.

क्या भारत में तेजी से बढ़ते अरबपतियों और उनकी संपत्ति पर फिर से सम्पत्ति कर लगाने का समय नहीं आ गया है?

विश्व परिक्रमा

इस सप्ताह अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन को सत्ता संभाले एक साल पूरे हो गए. लेकिन एक साल में ही उनकी सरकार का रंग फीका पड़ने लगा है. उम्मीदें धुंधली पड़ने लगी हैं. बढ़ती महंगाई से सरकार के आर्थिक प्रबंधन की किरकिरी हो रही है. सरकार अन्दर और बाहर दोनों ओर से आलोचनाओं से घिरी है. डेमोक्रटिक पार्टी के अन्दर प्रगतिशील/लेफ्ट लिबरल खेमे और मध्यमार्गियों/दक्षिणपंथी झुकाववालों के बीच रार मची हुई है. इसका फायदा उठाकर रिपब्लिकन पार्टी बाइडन को सीनेट में कई महत्वाकांक्षी योजनाओं को आगे बढ़ाने से रोकने में कामयाब हो रही है.

उधर, ब्रिटेन में प्रधानमंत्री बोरिस जानसन पर इस्तीफा देने का दबाव बढ़ता जा रहा है. यह दबाव अपनी पार्टी के अन्दर से भी उठ रहा है. कंजर्वेटिव पार्टी के कई नेता उनसे खुलकर इस्तीफा देने को कह रहे हैं. उनमें से एक सांसद पार्टी छोड़कर लेबर खेमे में पहुँच गए हैं. हालिया ओपिनियन पोल्स के मुताबिक, लेबर पार्टी ने कंजर्वेटिव पार्टी पर दस फीसदी से ज्यादा की बढ़त बना ली है जो 2013 के चुनावों के बाद सबसे ज्यादा है.  

उधर, रूस और अमेरिका/नाटो के बीच बढ़ते तनाव के बीच पश्चिमी मीडिया की रिपोर्टें यह आशंका जाता रही हैं कि रूस कभी भी यूक्रेन पर हमला कर सकता है. अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन इस सप्ताह यूक्रेन की राजधानी कियेव में थे. उन्होंने शुक्रवार को जेनेवा में रूसी विदेश मंत्री से मुलाकात करके तनाव कम करने की कोशिश की लेकिन बातचीत में गतिरोध बना हुआ है. ब्लिंकन ने रूस को अगले सप्ताह तक उसकी मांगों पर लिखित जवाब देने और उसके बाद फिर विदेश मंत्री की बातचीत का प्रस्ताव दिया है. जाहिर है कि अमेरिका किसी तरह से मामले को टाले रखना चाहता है. लेकिन क्या रूस चुप रहेगा?

चलते-चलते

वियतनाम के जाने-माने बुद्धिस्ट संत टिक नाट हान का 95 साल की उम्र में निधन हो गया. उन्हें पश्चिम में जेन मास्टर और “माइंडफुलनेस” के अभ्यास को प्रचारित करने के लिए जाना जाता था. लेकिन एक ज़माने में उन्होंने वियतनाम पर अमेरिकी हमले का विरोध और मार्टिन लूथर किंग के अश्वेत अधिकारों की लड़ाई का समर्थन किया था. वे सामाजिक रूप से प्रगतिशील संतों में गिने जाते थे.

ओपराह विनफ्रे के साथ उनकी एक बातचीत आप भी सुनिए:

इस सप्ताह बस इतना ही. अगले सप्ताह फिर होगी दुनिया जहान की बातें.

और हाँ, अपना फीडबैक भेजते रहिये.

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आनंद प्रधान

देश-समाज की राजनीति, अर्थतंत्र और मीडिया का अध्येता और टिप्पणीकार