दिलीप कुमार: एक युग का अंत

दिलीप कुमार भी चले गए. वे एक भरा-पूरा जीवन जीकर गए हैं.

अपने पीछे वे एक शानदार विरासत छोड़कर गए हैं. वे हिंदी सिनेमा के उन चुनिन्दा कलाकारों और अगुवा नायकों में से एक हैं जिन्होंने हिंदी सिनेमा को गढ़ा, उसे एक पहचान दी और एक नए बनते हुए देश को वह कहानियां दीं जिनमें ट्रेजेडी और तन्हाइयाँ थीं, थोड़ा रोमांस और उल्लास भी था और नए सपने और उसकी कशमकश भी थी.

उनके साथ ही हिंदी सिनेमा के स्वर्णिम दौर की त्रयी- दिलीप कुमार, राज कपूर और देव आनंद का वह आखिरी किरदार भी चला गया जिसकी फिल्मों और कहानियों में आज़ादी के बाद बनते एक नए हिन्दुस्तान के सपने, आकांक्षाएं और जद्दोजहद को देश ने बेपनाह मुहब्बत के साथ देखा और महसूस किया था.

यह हिंदी सिनेमा की वह खूबसूरत, बेलौस और विश्वास से भरी हुई त्रयी थी जिसके ब्लैक एंड व्हाईट सेल्यूलाइड पर रचे गए जादू से आज़ाद भारत की यात्रा शुरू हुई और जो 60 के दशक में इस्टमैन-कलर के साथ रंगीन हो गई और कई रंगों में आगे भी जारी रही. आज़ादी के तुरंत बाद इस नए, उम्मीद से भरे और बेचैन सफ़र में इन तीन नायकों और उनके फिल्मकारों की कहानियों में आज़ाद भारत के वे नौजवान दिखते हैं जो सुहाने सफ़र पर निकल पड़े हैं, बेलौस और बेफ़िक्र हैं, धीरे-धीरे अपना आत्मविश्वास हासिल कर रहे हैं, प्रेम में पड़ और टूट-बिख़र रहे हैं, दर्द के सुर में सबसे मधुर गीत गा रहे हैं, ख्वाबों के बनने और टूटने की कशमकश में जूझ रहे हैं और हाँ, रुढियों-दकियानूसी ख्यालों को चुनौती दे रहे हैं.

दिलीप कुमार इनमें खास हैं. वे आज़ादी और उसमें भी विभाजन की त्रासदी के बाद के नए भारत की उस दुखांतिका (ट्रेजेडी) के कलाकार हैं जिसमें एक ओर चरमराता सामंती ढांचा, पितृसत्तात्मक पारिवारिक मूल्य और बंधन और दकियानूसी समाज है और दूसरी ओर, संविधान से मिली व्यक्तिगत आज़ादी और बराबरी के मूल्य हैं. इसकी टकराहट में युवा सपनों की बर्बादी और उससे निकली त्रासदी के नायक हैं- दिलीप कुमार.

उन्होंने शरतचंद्र के "देवदास" को और "देवदास" ने उनको एक-दूसरे का पर्याय सा बना दिया. देवदास उस ज़माने में सामंती पारिवारिक मूल्यों और जकड़नों में फंसे ऐसे युवा की कहानी बन जाती है जो अपने सपनों के लिए तिल-तिलकर मरता रहता है लेकिन उसे तोड़ नहीं पाता है. वह एक ऐसे मोड पर खड़ा है जहाँ "..जीने की भी हसरत है और मरने का भी अरमां है...अब आगे तेरी मर्जी.." लेकिन देवदास मर जाता है. इस दुखांतिका में उस जमाने के लाखों नौजवानों ने अपनी हसरतों को टूटते और मरते देखा.

इस तरह देवदास और उसके साथ दिलीप कुमार एक लीजेंड बन गए..

फिल्म "देवदास" का एक गीत " अब आगे तेरी मर्जी"

आज़ादी के तुरंत बाद के दिलीप कुमार में वही नौजवान बार-बार लौट आता है जिसके ख्वाब बार-बार सामन्ती सामाजिक रुढियों, दकियानूसी सोच और पाबंदियों से टकराकर टूट जाते हैं, वह लड़ नहीं पाता है और अपने ही दर्द में जीता है. वह इस दुनिया से कहीं दूर निकल जाने की त्रासदी के साथ जीता है.

विमल राय की "मधुमती" एक कल्ट फिल्म है. यह 1958 में आई थी. इस फिल्म में कवि शैलेन्द्र का लिखा और सलिल चौधरी के संगीत में ढला गीत है जिसे मोहम्मद रफी ने गाया है -टूटे हुए ख्वाबों ने हमको ये सिखाया है...

मुझे याद है कि 80 के दशक में भी कालेजों के विदाई फंक्शन्स में कोई न कोई लड़का इसे गाया करता था. हाल में खामोशी छा जाती थी. मैंने इसे सबसे पहले हजारीबाग के सेंत कोलंबा कालेज के हाल में एक सीनियर को गाते हुए सुना था.

लोकप्रिय फिम मधुमती में शैलन्द्र का लिखा और सलिल चौधरी के संगीत में सजा गीत

लेकिन न जाने क्यूँ, मुगल-ए-आज़म के अलावा मैं दिलीप कुमार की ट्रेजेडीवाली फ़िल्में नहीं देख पाता था. मुगल-ए-आज़म की बात ही अलग थी. उसका सलीम मरने-मारने को उतारू था. वह ट्रेजेडी को चुपचाप सहने को तैयार नहीं था. लेकिन यह सच है कि उनकी ट्रेजेडीवाली फ़िल्में मैं देख नहीं पाता था. कुछ तो उन फिल्मों की धीमी रफ़्तार, ख़राब प्रिंट और कुछ तकलीफ देखी न जाती थी.

इस मायने में मेरा दिलीप कुमार से परिचय उनके दूसरे दौर के उन किरदारों से ज्यादा है जो खिलंदड़े हैं, आत्म-विश्वास से भरपूर हैं, प्रेम का इजहार करने में संकोच नहीं करते, अपने हक़ के लिए लड़ने-मरने को भी तैयार रहते हैं. यह 60 के दशक का नया नौजवान था जिसने आज़ादी से जीना शुरू कार दिया था. इस दौर की उनकी कई फ़िल्में मुझे पसंद हैं- नया दौर, राम और श्याम, गंगा-जमुना, लीडर, आज़ाद, संघर्ष और सगीना महतो.

गंगा जमुना फिल्म का एक लोकप्रिय गाना

फिर जब मैं यूनिवर्सिटी में पहुंचा, दिलीप कुमार ने चरित्र भूमिकाओं में वापसी की. इस दौर में उनकी दो फ़िल्में मुझे बहुत पसंद हैं- मशाल और शक्ति. इन दोनों फिल्मों में उनकी अदाकारी में एक खास किस्म की उंचाई, गहराई और रेंज है. वे इन दोनों फिल्मों में चरित्र भूमिकाओं में होने के बावजूद छाए रहते हैं.

दिलीप कुमार जीते जी लीजेंड बन गए थे. वे सिनेमा में नेहरूयुगीन भारत के चमकते हुए सितारे और प्रतीक थे. वे उस बालीवुड के प्रतीक थे जिसमें धार्मिक अस्मिताएं घुलमिल रही थीं और हिन्दू-मुस्लिम कलाकारों, लेखकों, फिल्मकारों में कोई फर्क नहीं करता था. यह वह बम्बइया सिनेमा था जो एक नए बनते हुए भारत में हिन्दू-मुस्लिम दोस्ती और एक नया देश बनाने के सपने के साथ परवान चढ़ा. आश्चर्य नहीं कि यह बम्बइया सिनेमा एक मिनी हिन्दुस्तान का प्रतीक बन गया जहाँ देश के अलग-अलग कोने से आये अलग-अलग जाति-धर्मों-एथनिक समुदायों के कलाकारों ने हमारे-आपके सपनों को नई कहानियां और गीत-संगीत दिया.

दिलीप कुमार उन कहानियों और सपनों में हमेशा जिंदा रहेंगे.

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आनंद प्रधान

देश-समाज की राजनीति, अर्थतंत्र और मीडिया का अध्येता और टिप्पणीकार