क्या बेलगाम महंगाई बड़ी कंपनियों के लालच का नतीजा है?

टमाटर और दूसरी सब्जियों के साथ अरहर दाल और अन्य खाद्य वस्तुओं की आसमान छूती कीमतों के कारण ज्यादातर मध्यमवर्गीय परिवारों की रसोई का बजट और मुंह का स्वाद बिगड़ा हुआ है. लेकिन सरकार और रिज़र्व बैंक महंगाई को काबू में करने के दावे करते हुए अपनी पीठ थपथपाने में लगे हैं.

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, महंगाई की दर में लगातार गिरावट आ रही है. उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआइ) पर आधारित महंगाई की दर इस साल अप्रैल के 4.70 फीसदी और मार्च के 5.66 फीसदी की तुलना में मई में गिरकर 4.25 फीसदी रह गई है.

साफ़ है कि महंगाई दर में गिरावट आ रही है. लेकिन आम उपभोक्ताओं की रसोई का बजट क्यों बिगड़ा हुआ है? उन्हें महंगाई में आई कमी क्यों नहीं महसूस हो रही है? इसकी कई वजहें हैं. पहली, मई महीने में महंगाई या मुद्रास्फीति दर में आई गिरावट काफी हद तक पिछले साल के ऊँचे आधार (बेस) प्रभाव के कारण है.

पिछले साल मई महीने में मुद्रास्फीति की दर काफ़ी ऊपर 7.04 फीसदी थी. इसका अर्थ यह हुआ कि पिछले साल मई में वस्तुओं/सेवाओं की कीमतों में औसतन 7 फीसदी की बढ़ोतरी हुई जो इस साल 4.25 फीसदी और बढ़ गई. इस कारण ज्यादातर उपभोक्ताओं को महंगाई से कोई खास राहत नहीं महसूस हो रही है.

दूसरे, इस साल मई महीने में महंगाई दर में गिरावट के बावजूद कई जरूरी वस्तुओं और सेवाओं की महंगाई दर काफ़ी ऊपर बनी हुई है. उदाहरण के लिए, अनाजों और उनके उत्पादों की महंगाई दर अब भी दो अंकों की उंचाई पर यानी 12.65 फीसदी बनी हुई है जबकि दूध और उसके उत्पादों की महंगाई दर 8.91 फीसदी और अंडे की 6.71 फीसदी, दालों और उसके उत्पादों की 6.56 फीसदी, मसालों की 17.9 फीसदी, तैयार भोजन-नाश्ते-मिठाई की 6.36 फीसदी, कपड़ों-जूतों आदि की 6.64 फीसदी, घरेलू वस्तुओं और सेवाओं की 6.05 फीसदी और पर्सनल केयर उत्पादों की महंगाई दर 9.92 फीसदी रही.

साफ़ है कि महंगाई दर में गिरावट की रिपोर्टों के बावजूद आम उपभोक्ताओं के मुंह का स्वाद क्यों कड़वा बना हुआ है.

टमाटर के रंग

तीसरे, मई से जून/जुलाई के बीच कई इलाकों में बे-मौसमी और अत्यधिक बारिश से सब्जियों के उत्पादन और आपूर्ति पर बुरा असर पड़ा है जिसके कारण टमाटर के साथ प्याज और दूसरी कई सब्जियों की कीमतें आसमान छूने लगी हैं. जरूरी सब्जियों खासकर टमाटर-प्याज-आलू (टाप) की पर्याप्त आपूर्ति सुनिश्चित करने के तमाम दावों के बावजूद सब्जियों की कीमतों में मौसमी उछाल एक स्थाई परिघटना बन गई है.

विडंबना देखिए कि कुछ सप्ताहों पहले टमाटर और प्याज पैदा करनेवाले किसान कीमतों में भारी गिरावट के कारण उसे सड़कों पर फेंककर अपना गुस्सा जाहिर कर रहे थे. लेकिन अब वही टमाटर और प्याज उपभोक्ताओं के आंसू निकाल रहे हैं.

चौथे, सब्जियों खासकर टमाटर-प्याज की कीमतों में उछाल के बावजूद इसका महंगाई की दर पर असर कम होता है क्योंकि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में सब्जियों खासकर टमाटर का भारांक (वेटेज) कम है. इसी तरह दालों खासकर अरहर की कीमतों में तेज बढ़ोतरी के बावजूद महंगाई दर में वह नहीं दिखती है क्योंकि सूचकांक में सभी दालों और उनके उत्पादों का भारांक सिर्फ 2.9 फीसदी है.

लेकिन सवाल यह है कि रिज़र्व बैंक की कोशिशों के बावजूद महंगाई काबू में क्यों नहीं आ रही है? आखिर इस महंगाई के लिए कौन जिम्मेदार है? रिज़र्व बैंक और बहुतेरे अर्थशास्त्री इसके लिए मुख्यतः वैश्विक कारणों को ज़िम्मेदार मानते हैं. उनके मुताबिक, कोविड महामारी के दौरान विकसित पश्चिमी देशों में अर्थव्यवस्था और आमलोगों की मदद के लिए उदारता के साथ बांटे गए भारी-भरकम प्रोत्साहन और सहायता पैकेज का नतीजा है जिसके कारण बाज़ार में बहुत अधिक पैसा (मांग) आ गया लेकिन कोविड संबंधित प्रतिबंधों से आपूर्ति प्रभावित होने के कारण कीमतें बढ़ने लगीं. दूसरे, यूक्रेन पर रूसी हमले के कारण पेट्रोल, खाद्य तेलों, उर्वरकों और खाद्यान्नों की आपूर्ति पर बुरा असर पड़ा जिसके कारण महंगाई बेकाबू हो गई.

लालचस्फीति

लेकिन कई अर्थशास्त्री मौजूदा महंगाई को कुछ बड़ी कंपनियों की वैश्विक और घरेलू बाज़ार में बढ़ते दबदबे और कीमतों को प्रभावित करने की उनकी बेलगाम ताकत का नतीजा मानते हैं. उनके मुताबिक, बड़ी कम्पनियाँ ज्यादा से ज्यादा मुनाफ़ा कमाने के लिए मौके खासकर आपूर्ति में बाधा और उसके कारण मुद्रास्फीति में बढ़ोतरी के संकेतों का बेजा फ़ायदा उठा रही हैं. इन अर्थशास्त्रियों का कहना है कि यह बड़ी कंपनियों की लालच से पैदा हुई महंगाई है जिसे वे ग्रीडफ्लेशन या लालचस्फीति कह रहे हैं.

इस साल मार्च महीने में रिजर्व बैंक के पूर्व डिप्टी गवर्नर और जानेमाने अर्थशास्त्री विरल आचार्य ने एनएससी-न्यूयार्क यूनिवर्सिटी कांफ्रेंस में पढ़े अपने एक शोधपत्र में यह कहा था कि देश में पांच बड़ी कम्पनियों (रिलायंस, टाटा, ए बी बिरला समूह, अडानी और भारती-एयरटेल) की बाज़ार में अपने उत्पादों की कीमत तय करने की बढ़ती ताकत के कारण कोई महंगाई बेकाबू बनी हुई है. आचार्य के मुताबिक, इन पांच कंपनियों का बाज़ार में इस कदर दबदबा है कि वे अपने उत्पादों की कीमत अपने प्रतियोगियों की तुलना में ज्यादा रख रही हैं.

हालाँकि कई भारतीय अर्थशास्त्री प्रो. विरल आचार्य के तर्कों से सहमत नहीं हैं. लेकिन जाने-माने अमेरिकी अर्थशास्त्री नौरिएल रोबिनी ने भी एक लेख में कहा था कि भारत में कुछ बड़ी कंपनियों का दबदबा बढ़ रहा है जिससे बाज़ार में अल्पाधिकार (ओलिगोपोली) की स्थिति बन रही है. यही नहीं, इस समय यह बहस दुनिया भर में चल रही है. चर्चित पत्रिका “इकनामिस्ट” ने अपने ताजा अंक में विकसित पश्चिमी देशों में मुद्रास्फीति की ऊँची दरों के लिए कार्पोरेट लालच और मौजूदा महंगाई को लालचस्फीति (ग्रीडफ्लेशन) बताने को “बकवास आइडिया” कहा है.

लेकिन वैश्विक खाद्यान्न व्यापार से लेकर पेट्रोलियम कार्टेल तक मुट्ठी भर कंपनियों का दबदबा है जो कोविड महामारी से लेकर यूक्रेन-रूस युद्ध तक हर मौके का इस्तेमाल छप्परफाड़ मुनाफ़े के लिए कर रही हैं. उदाहरण के लिए, दुनिया की पांच सबसे बड़ी तेल कंपनियों ने 2022 में 200 अरब डालर से अधिक का मुनाफा कमाया. इसी तरह दुनिया के खाद्यान्न व्यापार का 75 फीसदी से अधिक नियंत्रित करनेवाली चार सबसे बड़ी कंपनियों ने बीते साल रिकार्डतोड़ मुनाफा कमाया.

घरेलू भारतीय बाज़ार में खाद्यान्नों, सब्जियों-फलों, दूध आदि के भण्डारण, थोक और खुदरा कारोबार में चंद बड़ी कंपनियों की घुसपैठ के बाद कीमतों खासकर अनाजों, दालों, खाद्य तेलों आदि की कीमतों को मनमाने तरीके से निर्धारित करने उनकी भूमिका बढ़ती जा रही है.

मौसम की मार और किल्लत की स्थिति या महंगाई के हल्ले के बीच मौके का फायदा उठाने में भी ये कम्पनियाँ पीछे नहीं हैं. कई मामलों में कीमतों में गिरावट को आम उपभोक्ताओं तक पहुँचने से भी रोक रही हैं. महंगाई को काबू में करना है तो इसे अनदेखा करने या नकारने के बजाय रेगुलेट करने का समय आ गया है. 

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आनंद प्रधान

देश-समाज की राजनीति, अर्थतंत्र और मीडिया का अध्येता और टिप्पणीकार