कौन सुनेगा घरेलू वर्कर्स की तकलीफ़ और मुश्किलों को?

नव दौलतिया वर्ग के लिए डोमेस्टिक हेल्प भी “यूज एंड थ्रो” जैसी वस्तु बनकर रह गई हैं  

क्या शिक्षा और डिग्रियां जितनी ऊँची होती जा रही हैं, तनख्वाहें मोटी और चमकदार हाऊसिंग सोसायटी में फ्लैट बढ़ते जा रहे हैं, उनका दया, करुणा और संवेदना से संबंध उतना ही टूटता जा रहा है? क्या तेजी से फलते-फूलते नव दौलतिया मध्यवर्ग को उन डोमेस्टिक हेल्पर्स, गार्ड्स, माली, डिलीवरी एजेंट्स आदि की मुश्किलों और तकलीफों से कोई मतलब नहीं रह गया है जो उसकी “हैप्पी लाइफ” के लिए दिन-रात मरते-खपते रहते हैं?

क्या पैसे, ताकत और रसूख के नशे में वह इस कदर चूर हो गया है कि वह गरीबों और वर्किंग क्लास को बेइज्जत करना और उनके साथ मनमानी करना अपना अधिकार समझने लगा है?

दिल्ली के द्वारका की एक हाऊसिंग सोसायटी में 10 साल की एक नाबालिग घरेलू सहायिका (डोमेस्टिक हेल्प) के साथ निजी एयरलाइंस में काम करनेवाली पायलट पत्नी और ग्राउंड स्टाफ पति ने जिस तरह से मारपीट की और उसे यातना दी, उसे हाल के महीनों में हुई ऐसी और कारुणिक घटनाओं के साथ जोड़कर देखने पर किस तरह के समाज की तस्वीर उभरती है?

द्वारका में उस नाबालिग डोमेस्टिक हेल्प बच्ची के साथ दुर्व्यवहार करनेवाले पति-पत्नी पढ़े-लिखे, बड़े एयरलाइंस में नौकरी करने और ऊँची तनख्वाह पानेवाले “सभ्य” लोग थे लेकिन उनके व्यवहार को देखकर लगता है कि उनकी संवेदनाएँ बहुत पहले मर चुकी थी.

यह ऐसी पहली घटना नहीं है. यह कोई अपवाद भी नहीं है. कुछ ही महीनों पहले नई अर्थव्यवस्था के शहर गुरुग्राम में बड़ी कंपनियों में ऊँची नौकरियां कर रहे प्रोफेशनल पति-पत्नी को एक आदिवासी डोमेस्टिक हेल्प को महीनों यातना देने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था.

बीते साल रांची में एक पूर्व आईएएस अफसर की पत्नी को अपने डोमेस्टिक हेल्प को “कई दिनों तक भूखा रखने और गर्म लोहे की छड़ से दागने” जैसे अमानवीय यातनाएं देने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. यहाँ ऐसी अनेकों घटनाओं का जिक्र किया जा सकता है लेकिन याद रहे कि ऐसी 95 फीसदी से ज्यादा घटनाएँ रिपोर्ट नहीं होतीं.  

यह एक खतरनाक और चिंतित करनेवाले सामाजिक ट्रेंड की ओर इशारा करता है. महानगरों की “गेटेड कॉलोनी और हाईराइज सोसायटी” में नई अर्थव्यवस्था का लाभार्थी नव दौलतिया वर्ग एक ऐसा हृदयहीन समाज बना रहा है जो न सिर्फ “आई, मी एंड माईसेल्फ” में सिमट गया है, भारतीय समाज के जमीनी यथार्थ से कटता जा रहा है बल्कि उस वर्किंग क्लास (कामवालियों, गार्डों, सब्जीवाले, डिलीवरी एजेंट, बिजली मिस्त्री, कपडे प्रेस करनेवाली आदि) को अविश्वास, नीची और यहाँ तक कि घृणा की निगाह से देखता है जिसके बिना उसका काम नहीं चल सकता है.

हालाँकि इस वर्किंग क्लास की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है लेकिन हमारे सामाजिक परिदृश्य में वे “अदृश्य” बना दिए गए हैं. उनके साथ लगभग अछूतों सा व्यवहार होता है. दिल्ली, गुरुग्राम और नोयडा से लेकर देश के अधिकांश महानगरों और उनके चमकते-दमकते नए उपनगरों की हाई राइज सोसायटी में घरेलू कामवालियों से लेकर डिलीवरी एजेंट तक के लिए अलग लिफ्ट, छोटी सी गलती पर भी उनके साथ दुर्व्यवहार और मारपीट, सुरक्षा गार्डों-मालियों और दूसरे पार्ट टाइम कर्मचारियों आदि के साथ बदतमीजी और गाली-गलौच आदि के वीडियो सोशल मीडिया पर अक्सर दिख जाते हैं.  

यह एक नए तरह का सामाजिक रंगभेद जैसा प्रतीत होता है. नव दौलतिया वर्ग के व्यवहार से ऐसा लगता है कि वह वर्किंग क्लास के लोगों को इंसान से कुछ कमतर समझता है. वह उन्हें अपनी सिर्फ सुख-सुविधाओं का साधन भर समझता है जिन्हें कुछ पैसों के बदले मनमाने तरीके से इस्तेमाल किया जा सकता है. कुछ उसी तरह जैसे नव उपभोक्तावाद ने वस्तुओं को “इस्तेमाल करो और फेंक दो” (“यूज एंड थ्रो”) की संस्कृति को आगे बढ़ाया. ऐसा लगता है कि यह संस्कृति वस्तुओं और उत्पादों से आगे इस वर्किंग क्लास को भी “यूज एंड थ्रो” करने तक पहुँच चुकी है.

असल में, नव दौलतिया वर्ग की रोज़ाना की जरूरतों और सुख-सुविधाओं को पूरा करने के लिए नई अर्थव्यवस्था के साथ असंगठित सेवा क्षेत्र में घरेलू कामगारों की संख्या तेजी से बढ़ी है. हाल के वर्षों में महानगरों में आये प्रवासी मजदूरों का एक अच्छा-खासा हिस्सा खासकर महिलाएं कालोनियों और हाई-राइज सोसायटी के फ्लैटों में डोमेस्टिक हेल्प के रूप में काम कर रही हैं. डोमेस्टिक हेल्प की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए संदिग्ध प्लेसमेंट एजेंसियां और ठेकेदार झारखण्ड, उड़ीसा, बंगाल, बिहार जैसे राज्यों से महिलाओं और यहाँ तक कि नाबालिग लड़कियों को भी ले आ रहे हैं.

लेकिन इनका कोई पुरसाहाल नहीं है. घरेलू हेल्प के रूप में काम करनेवालों में 75 फीसदी महिलाएं हैं. वे इतनी “अदृश्य” हैं कि खुद सरकार को ठीक-ठीक पता नहीं है कि देश में उनकी कुल संख्या कितनी है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, घरेलू कामकाज करनेवाले असंगठित डोमेस्टिक हेल्प्स की संख्या लगभग 47.5 लाख है लेकिन अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के मुताबिक, भारत में 2 से 8 करोड़ के आसपास घरेलू श्रमिक हैं जिनमें से ज्यादातर महिलाएं हैं. इनमें एक बड़ी संख्या बच्चों और नाबालिगों की है. 

इसके बावजूद उनकी भलाई, सामाजिक सुरक्षा और हितों की रक्षा के लिए आज तक कोई केन्द्रीय कानून नहीं बन पाया है. केंद्र सरकार ने 2016 में लोकसभा में डोमेस्टिक वर्कर्स कल्याण विधेयक पेश किया था लेकिन वह पास नहीं हो पाया.

केन्द्रीय श्रम मंत्रालय ने 2019 में एक राष्ट्रीय डोमेस्टिक हेल्प नीति पेश की थी जिसमें प्लेसमेंट एजेंसीज को रेगुलेट करने से लेकर उन्हें मौजूदा श्रम कानूनों के तहत लाने और न्यूनतम मजदूरी के अधिकार, सामाजिक सुरक्षा प्रावधान, उत्पीड़न और शोषण से संरक्षण, पेंशन, स्वास्थ्य और मातृत्व लाभ आदि का प्रावधान प्रस्तावित है. लेकिन वह नीति आज तक लागू नहीं हुई है.    

कई जानी-मानी संस्थाओं और एनजीओ के अलग-अलग सर्वेक्षणों से यह कड़वी सच्चाई बार-बार उजागर हुई है कि डोमेस्टिक हेल्प को न सिर्फ न्यूनतम वेतन या मजदूरी नहीं मिलती है, कामकाज के घंटे तय नहीं हैं, कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है बल्कि हाल की रिपोर्टों से साफ़ है कि उनके कामकाज की परिस्थितियां बद से बदतर होती जा रही हैं. उनके साथ मारपीट, यातना और यौन उत्पीड़न के मामले बढ़ते जा रहे हैं.

सवाल यह है कि क्या नई अर्थव्यवस्था की इन “अदृश्य” बन दी गईं डोमेस्टिक वर्कर्स की कहीं कोई सुनवाई होगी? क्या उन्हें न्याय मिलेगा? सबसे बढ़कर हमारी हाईराइज सोसायटियों और गेटेड कालोनियों में उन्हें इंसान की तरह कब देखा जाएगा? उनके लिए हमारी संवेदनाएं कब जागेंगी?

(नवभारत टाइम्स में 24 जुलाई 23 को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)

Write a comment ...

आनंद प्रधान

देश-समाज की राजनीति, अर्थतंत्र और मीडिया का अध्येता और टिप्पणीकार