क्या ब्राज़ील में लूला और लेफ्ट की वापसी होगी?

आज दक्षिण अमेरिका के सबसे बड़े देश- ब्राज़ील का स्वतंत्रता दिवस है. यह उसका 200वां स्वतंत्रता दिवस है. ब्राजील पुर्तगाल का उपनिवेश था. उसने 7 सितम्बर 1822 को पुर्तगाल से आज़ाद होने का एलान किया था. लेकिन इस स्वतंत्रता दिवस पर सबसे ज्यादा चर्चा अगले महीने होनेवाले राष्ट्रपति चुनावों की है. ब्राज़ील में अगले 2 अक्तूबर को वहां राष्ट्रपति चुनावों के लिए पहले दौर की वोटिंग होनी है. मुख्य मुक़ाबला मौजूदा राष्ट्रपति और धुर दक्षिणपंथी-पापुलिस्ट नेता जईर बोल्सानारो और पूर्व राष्ट्रपति और वामपंथी खेमे के उम्मीदवार लुईस इनासियो लूला डी-सिल्वा (लोकप्रिय नाम लूला) के बीच है.

वैसे तो हर राष्ट्रपति चुनाव महत्वपूर्ण होता है लेकिन ये चुनाव कुछ ज्यादा ही महत्वपूर्ण हो गए हैं. वह इसलिए कि दक्षिण अमेरिका में एक-डेढ़ दशक के अन्तराल पर एक बार फिर वामपंथी राजनीति में उभार दिखाई दे रहा है. दक्षिण अमेरिका के कई देशों- चिली, कोलंबिया, हांडूरस, मेक्सिको, अर्जेंटीना, पेरू में वामपंथी उम्मीदवारों की जीत के बाद सबकी निगाहें ब्राज़ील पर लगी हैं.   

ये चुनाव इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं कि ब्राज़ील की दक्षिण अमेरिका की राजनीति और आर्थिकी में वही जगह है जो अफ्रीका में दक्षिण अफ्रीका और एशिया में चीन और भारत की है. ब्राज़ील दक्षिण अमेरिका का आर्थिक पावरहाउस है. वह वैश्विक राजनीति और आर्थिकी में एक नए उभरते ब्लाक- ब्रिक्स (ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) का भी सदस्य है.  

तीसरे, यह चुनाव महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ब्राज़ील की राजनीति इस समय एक नाजुक मोड़ पर खड़ी है. जईर बोल्सानारो की अगुवाई में ब्राज़ील की राजनीति में धुर-दक्षिणपंथ के उभार ने लोकतंत्र और उसकी संस्थाओं और लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं के लिए संकट खड़ा कर दिया है. बोल्सानारो को ब्राज़ील का ट्रंप कहा जाता है. बोल्सानारो देश में इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन को निशाना बनाते रहे हैं. उनका आरोप है कि इसके जरिये फ्राड हो सकता है. उन्होंने ट्रंप की तरह ही ऐसे संकेत भी दिए हैं.

जी-20 की बैठक में पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के साथ जईर बोल्सानारो (सौजन्य: विकिपीडिया)

हालाँकि चुनाव अधिकारियों, कानूनी विशेषज्ञों से लेकर और दूसरी संस्थाएं कई बार इसका खंडन कर चुकी हैं लेकिन जिस तरह से आरोप दोहराते रहते हैं. उससे यह आशंका जोर पकड़ रही है कि नतीजे उलटे होने पर वे उसे मानने से इंकार कर सकते हैं, लोगों को हिंसा के लिए उकसा सकते हैं और देश में लोकतान्त्रिक/संवैधानिक संकट पैदा कर सकते हैं. बोल्सानारो सेना के पूर्व कैप्टन रहे हैं.    

ब्राज़ील के लिए यह वास्तविक खतरा है. इसकी वजह यह है कि देश ने 1964 से 1985 तक 21 साल लम्बी सैनिक तानाशाही देखी है. अधिकांश दक्षिण अमेरिकी देशों में लोकप्रिय चुनी हुई सरकारों के तख्तापलट और सैनिक तानाशाहियों का लम्बा इतिहास रहा है. इनमें से अधिकांश तख्तापलट और सैनिक तानाशाहियों के पीछे अमेरिकी सरकार और खासकर सीआइए की सक्रिय भूमिका रही है.

असल में, अमेरिका इस पूरे महाद्वीप को अपने पिछवाड़े और इस तरह सीधे राजनीतिक प्रभाव के इलाके के रूप में मानता रहा है. इस कारण वह दक्षिण अमेरिका के इन देशों में न सिर्फ वामपंथी सरकारों को नापसंद करता रहा है बल्कि उसने खुलकर उनका विरोध किया है. वह सरकारों के तख्तापलट से लेकर चुने हुए नेताओं की हत्या और सैनिक तानाशाहियों और दक्षिणपंथी सरकारों और नेताओं को संरक्षण देता रहा है.

इस पृष्ठभूमि में ब्राज़ील का राष्ट्रपति चुनाव हो रहे हैं जिसमें एक ओर मौजूदा राष्ट्रपति जईर बोल्सानारो हैं जिनपर कोविड महामारी के दौरान उलटे-सीधे और मनमाने फैसले करने और स्थिति को बिगाड़ने के आरोप हैं. कोविड से होनेवाली मौतों में ब्राज़ील, अमेरिका के बाद दूसरे नंबर पर है. विशेषज्ञों का मानना है कि इसकी सारी जिम्मेदारी बोल्सानारो की है क्योंकि पहले तो उन्होंने उसे “सामान्य फ्लू” कहकर नज़रअंदाज़ किया और फिर उलटे-सीधे और अवैज्ञानिक फैसले किए जिसके कारण स्थिति बिगडती चली गई.

बोल्सानारो: निशाना चूकने की आशंका? (सौजन्य: विकिपीडिया)

दूसरी ओर, देश में महंगाई रिकार्ड स्तर पर है और अर्थव्यवस्था की स्थिति डांवाडोल है. बोल्सानारो पर यह भी आरोप हैं कि उन्होंने बड़ी कृषि कंपनियों के इशारे पर अमेज़न के जंगलों में लगी (या लगाई गई) आग को बुझाने के लिए कुछ नहीं किया और उसे उजड़ते देखते रहे.

आमतौर पर बोल्सानारो की प्रशासनिक क्षमता, कुशलता और नीतिगत समझदारी और कामकाज के तरीकों और उलटे-सीधे बयानों को लेकर सवाल उठते रहे हैं. उनपर ट्रंप की तरह झूठ, प्रोपेगंडा और सामाजिक विभाजन को बढ़ानेवाली राजनीति करने के आरोप हैं. आश्चर्य नहीं कि इन चुनावों में भी राजनीतिक माहौल पूरी तरह से ध्रुवीकृत और गर्म है.

हालाँकि अधिकांश ओपिनियन पोल्स में बोल्सानारो, अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी लूला से लगातार पीछे चल रहे हैं लेकिन हाल के महीनों में गरीबों और मध्यवर्ग के लिए कई लोकलुभावन फैसले करके उन्होंने अपनी स्थिति थोड़ी सुधारी है. इसके बावजूद ओपिनियन पोल्स में लूला और बोल्सानारो के बीच का अंतर अभी भी दोहरे अंकों में बना हुआ है.

इसकी वजह यह है कि लूला को एक चमत्कारिक नेता माना जाता है. वे ट्रेड यूनियन नेता रहे हैं. वे ब्राज़ील की वर्कर्स पार्टी के नेता हैं. लूला का राजनीतिक करियर उतार-चढ़ाव से भरा रहा है. उनका ब्राज़ील की राजनीति में उभार भी चमत्कार से कम नहीं है. पहली बार 2002 में राष्ट्रपति का चुनाव जीतने से पहले वे लगातार तीन बार चुनाव हार चुके थे. लेकिन जब 2002 में जीते तो फिर 2006 में दोबारा भी जीते और 2010 तक देश के राष्ट्रपति रहे.

उनके कार्यकाल में अर्थव्यवस्था में तेजी दिखी, देश में सम्पन्नता आई और करोड़ों लोग गरीबी रेखा से ऊपर आये. कई सामाजिक कल्याण के बड़े कार्यक्रम शुरू हुए. देशज समुदायों के लिए कार्यक्रम शुरू हुए. अमेज़न के जंगलों के संरक्षण पर जोर दिया गया. जिंसों की कीमतों में उछाल का फ़ायदा ब्राज़ील की अर्थव्यवस्था को हुआ. इसे ब्राज़ील के हालिया इतिहास में “स्वर्ण काल” के रूप में माना जाता है. इसके कारण ही उनकी उत्तराधिकारी डिलम रुसेफ़ को भी चुनाव जीतने में कोई मुश्किल नहीं हुई.

लूला के पहले कार्यकाल की फोटो (सौजन्य: विकिपीडिया)

लेकिन लूला की कामयाबियों ने उनके विरोधियों को इकठ्ठा कर दिया. उन्हें भ्रष्टाचार के एक विवादास्पद मामले में आरोपी बनाया गया. जुलाई 17 में फेडरल जज सर्जियो मोरो ने लूला को मनी लांड्रिंग और भ्रष्टाचार के आरोपों में विवादास्पद ट्रायल के बाद साढ़े नौ साल की जेल की सजा सुना दी. जज मोरो को बाद में बोल्सानारो की सरकार में न्याय और जन सुरक्षा के मंत्री बनाया गया.

लूला को अप्रैल 2018 में गिरफ्तार कर लिया गया. कोई डेढ़ साल से अधिक समय तक जेल में रहने और लम्बी कानूनी लड़ाई के बाद आखिरकार फेडरल सुप्रीम कोर्ट ने उनके खिलाफ लगाए गए मामलों को रद्द कर दिया. जज मोरो को पक्षपातपूर्ण माना गया. इस तरह लूला की मुख्यधारा की राजनीति में फिर से वापसी हुई है और 76 साल की उम्र वे एक बार फिर सत्ता में वापसी की दहलीज पर खड़े हैं.            

ऐसा माना जा रहा है कि 2 अक्तूबर को पहले दौर की वोटिंग में किसी भी प्रत्याशी को 50 फीसदी वोट नहीं मिलने जा रहे हैं. लेकिन बोल्सानारो और लूला का दूसरे दौर में जाना तय है. दूसरे दौर की वोटिंग 30 अक्तूबर को होगी. दिलचस्प यह है कि दूसरे दौर की वोटिंग में लूला की बोल्सानारो पर बढ़त 15 फीसदी की है. ओपिनियन पोल्स के मुताबिक, उसमें लूला को 53 फीसदी और बोल्सानारो को 38 फीसदी वोट मिलने के आसार हैं.

लेकिन मुकाबला इतना आसान नहीं होने जा रहा है. बोल्सानारो कैम्प और उनके पीछे खड़े ताकतवर उद्योगपति लूला को रोकने के लिए हर कोशिश कर रहे हैं. खुद बोल्सानारो आसानी से हार माननेवाले नहीं हैं. वे किसी भी हद तक जा सकते हैं. उनके कैम्प को झूठ, प्रोपेगंडा और कोई भी हथकंडा इस्तेमाल करने से परहेज नहीं है.

जाहिर है कि यह लूला के भी राजनीतिक कौशल की परीक्षा है.                                                     

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आनंद प्रधान

देश-समाज की राजनीति, अर्थतंत्र और मीडिया का अध्येता और टिप्पणीकार