क्या यूरोप में फासीवाद बरास्ते इटली वापस लौट रहा है?

इटली में इतिहास जैसे खुद को दोहरा रहा है. इटली में 1922 में बेनिटो मुसोलिनी के नेतृत्व में नेशनल फासिस्ट पार्टी ने एक तरह से जबरन सत्ता हथिया ली थी. इटली में मुसोलिनी के उभार के साथ यूरोप में नस्ली घृणा और नफरत पर आधारित फासीवादी राजनीति और उसके आतंक का अधिनायकवादी राज शुरू हुआ जिसमें बाद में जर्मनी में हिटलर और उसकी नाज़ी पार्टी सत्ता में आई और जिसने आख़िरकार यूरोप को दूसरे विश्वयुद्ध में ढकेल दिया.

सौ साल बाद एक बार फिर इटली में जैसीकि आशंका जाहिर की जा रही थी, वही हुआ. ब्रदर्स आफ इटली पार्टी की नेता जार्जिया मेलोनी के नेतृत्ववाले धुर दक्षिणपंथी (फासीवादी) गठबंधन को बीते रविवार को हुए मतदान में संसद के दोनों सदनों में साफ़ बहुमत मिल गया है. मेलोनी इटली की पहली महिला प्रधानमंत्री बनने जा रही हैं. लेकिन साथ ही, वे इटली में दूसरे विश्वयुद्ध के बाद पहली ऐसी सरकार का नेतृत्व करेंगी जिसकी नेता के बतौर उनकी खुद की और उनकी ब्रदर्स आफ इटली पार्टी की राजनीतिक-वैचारिक जड़ें इटली में मुसोलिनी के नेतृत्ववाली फासीवादी राजनीति/वैचारिकी से गहराई से जुड़ी हैं.

हालाँकि एक युवा राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में मुसोलिनी की प्रशंसा करनेवाली मेलोनी अब खुद को फासीवादी राजनीति से जोड़कर नहीं देखना चाहती हैं. वे खुद को फासीवादी बताए जाने से चिढ़ती और नाराज़ होती हैं. वे अपने को दक्षिणपंथी (राइट विंग) राजनीति की नेता के बतौर पेश करती हैं. लेकिन तथ्य यह है कि खुद उनकी और उनके ब्रदर्स आफ इटली पार्टी की जड़ें उस नव फासीवादी पार्टी- इटालियन सोशल मूवमेंट (एमएसआई) से जुड़ी हुई हैं जिसकी स्थापना मुसोलिनी के पराभव और दूसरे विश्वयुद्ध के बाद मुसोलिनी के साथियों खासकर उसके चीफ आफ स्टाफ रहे जोर्जो अल्मीरान्ते ने की थी.

बेनिटो मुसोलिनी (साभार: विकिपीडिया)

यही नहीं, मेलोनी और उनकी ब्रदर्स आफ इटली पार्टी की राजनीति-वैचारिकी में ऐसा बहुत कुछ है जो उन्हें इटली में फासीवादी राजनीति के ख़तरनाक और स्याह विरासत का स्वाभाविक उत्तराधिकारी बनाता है. ब्रदर्स आफ इटली के झंडे में तीन रंगों- लाल, सफ़ेद, हरे में आग की लौ का प्रतीक चिन्ह (लोगो) सीधे मुसोलोनी की पार्टी के प्रतीक चिन्ह से लिया गया है. यह धुर दक्षिणपंथी फासीवादी राजनीति के समर्थकों के लिए एक साफ़ सन्देश है कि पार्टी की जड़ें कहाँ हैं.

दूसरे, मेलोनी की राजनीति/वैचारिकी के केंद्र में “ईश्वर, मातृभूमि (होमलैंड) और परिवार” के नारे का संबंध भी मुसोलिनी की फासीवादी राजनीति से जुड़ा है. यहाँ ईश्वर का राजनीतिक मतलब ईसाई धर्म, होमलैंड का मतलब श्वेत ईसाई मूल के लोगों का राष्ट्र और उसमें उनका वर्चस्व  और परिवार का मतलब पारंपरिक श्वेत ईसाई परिवार और उसकी अनुदार/कट्टर मान्यताओं का दबदबा होना है. आश्चर्य नहीं कि मेलोनी न सिर्फ इटली में लम्बे दौर में आये और बसे आप्रवासियों और शरणार्थियों के खिलाफ आग उगलती और उन्हें निशाना बनाती रहती हैं बल्कि वे एलज़ीबीटी समुदाय और समलिंगी लोगों के अधिकारों का भी खुलकर विरोध करती रही हैं.

तीसरे, मेलोनी न सिर्फ खुद नव फासीवादी पार्टी- एमएसआई के युवा संगठन में काम कर चुकी हैं बल्कि वे यूरोप में सभी धुर दक्षिणपंथी पार्टियों और नेताओं के करीब हैं और उनके साथ मिलकर काम कर रही हैं. इस मामले में इटली में मेलोनी के चमत्कारिक उभार को यूरोप में हाल के दशक में राजनीतिक मुख्यधारा का हिस्सा बन गईं धुर दक्षिणपंथी नेताओं और पार्टियों- हंगरी में विक्टर ओर्बान से लेकर फ़्रांस की मरीन ली पेन तक के उभार के साथ जोड़कर देखना चाहिए.

इसमें कोई शक नहीं है कि यूरोप एक बार फिर से धुर दक्षिणपंथी राजनीति के उभार का केंद्र और प्रयोगभूमि बन गया है. पूर्वी यूरोप के हंगरी और पोलैंड में पहले से ही धुर दक्षिणपंथी सरकारें सत्ता में हैं जो लोकप्रिय जनसमर्थन से सत्ता में पहुँचीं लेकिन तमाम लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं और संस्थाओं को तोड़ते-मरोड़ते हुए व्यावहारिक रूप से चुनावी अधिनायकवादी सत्ता में तब्दील हो चुकी हैं.

हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओर्बान (साभार: विकिपीडिया)

लेकिन हंगरी और पोलैंड की तुलना में इटली न सिर्फ अधिक विकसित और लिबरल पश्चिमी यूरोप का हिस्सा है बल्कि यूरोप की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. इटली में धुर दक्षिणपंथी गठबंधन के खासकर ब्रदर्स आफ इटली की अगुवाई में सत्ता में पहुंचने के गहरे राजनीतिक मायने हैं. यहाँ यह गौर करनेवाली बात यह है कि बीते सप्ताह स्वीडन में हुए चुनावों में धुर दक्षिणपंथी स्वीडेन डेमोक्रेट संसद में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी और किंगमेकर बनकर उभरी है.

इस अर्थ में, इटली में मेलोनी की कामयाबी और फ़्रांस में राष्ट्रपति चुनावों में मरीन ली पेन को मिले 42 फीसदी वोट और हंगरी और पोलैंड में सत्ता पर एकछत्र पकड़ यूरोप में धुर दक्षिणपंथी राजनीति और वैचारिकी की बढ़ती राजनीतिक स्वीकार्यता और उसके मुख्यधाराकरण (मेनस्ट्रीमिंग) का ही सुबूत हैं. यूरोप के लगभग सभी देशों खासकर स्पेन, फिनलैंड, आस्ट्रिया, बेल्जियम, नीदरलैंड और जर्मनी में धुर दक्षिणपंथी राजनीतिक समूहों/संगठनों की बढ़ती सक्रियता, आक्रामकता और न्यूनतम 10-12 और औसतन 20-25 फीसदी वोट उनकी बढ़ती स्वीकार्यता के ही प्रमाण हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि इन धुर दक्षिणपंथी संगठनों/राजनीतिक दलों की राजनीति और वैचारिकी की जड़ें नव फासीवादी वैचारिकी से खाद-पानी पाती हैं. यह नस्ली/धार्मिक नफरत पर टिकी है जिसके निशाने पर यूरोप के वे अल्पसंख्यक आप्रवासी हैं जो मुख्यतः अफ्रीका, पश्चिम एशिया और एशिया से आये हैं. इनमें से ज्यादातर आप्रवासी उन देशों और इलाकों से हैं जो कभी यूरोपीय देशों के उपनिवेश थे. इन आप्रवासियों में वे आप्रवासी जो यूरोप के नागरिक नहीं हैं, उनकी कुल संख्या यूरोप की कुल जनसँख्या का मात्र 5.3 फीसदी है जबकि यूरोप में पैदा न होनेवाले आप्रवासियों की संख्या भी यूरोप की कुल जनसँख्या में मात्र 8.4 फीसदी है.

तथ्य यह भी है कि यूरोप की तुलना में दुनिया के ज्यादातर विकसित देशों की जनसँख्या में विदेशों में पैदा हुए आप्रवासियों की संख्या कहीं ज्यादा है. यूरोप में ज्यादातर आप्रवासी साफ़-सफाई, घरेलू काम, कंस्ट्रक्शन और रेस्तराओं/होटल आदि में काम करते हैं.

सच यह है कि वे बुढ़ाते यूरोप की जरूरत हैं. ये आप्रवासी यूरोप की सस्ते लेबर की सप्लाई की जरूरत पूरी कर रहे हैं. उनके बिना यूरोप के कई कारोबार और काम-धंधे संकट में पड़ जायेंगे. इसके बावजूद धुर दक्षिणपंथी उन्हें ही सबसे ज्यादा निशाना बनाते हैं.       

इसके अलावा धुर दक्षिणपंथियों के निशाने पर हाल के वर्षों में यूरोप में आये शरणार्थी भी हैं. इनमें ज्यादातर शरणार्थी वे हैं जो अमेरिकी-यूरोपीय नाटो गठबंधन के मनमाने सैन्य हस्तक्षेप के कारण अपने देशों- सीरिया, ईराक, अफगानिस्तान, सोमालिया, लीबिया आदि में छिडे गृहयुद्ध, तबाही और भूखमरी से जान बचाने के लिए भागकर यूरोप आये हैं. लेकिन यूरोप और अमेरिका इन शरणार्थियों की जिम्मेदारी उठाने के लिए तैयार नहीं हैं.

इटली में प्रवेश करते शरणार्थी (साभार: ओपन माइग्रेशन डाट ओआरजी )

इसका सबूत यह है कि यूरोप से कई गुना ज्यादा शरणार्थियों का बोझ लेबनान, जॉर्डन, तुर्की, युगांडा और सूडान जैसे देश उठा रहे हैं जहाँ की कुल जनसँख्या में शरणार्थियों की संख्या का प्रतिशत यूरोप से काफी ज्यादा है.

आप्रवासियों और शरणार्थियों को लेकर धुर दक्षिणपंथी पार्टियों और नेताओं के इतने शोर-शराबे और आक्रामक रवैये के बाद भी तथ्य यह है कि यूरोप ने अपनी कुल जनसँख्या के मात्र 0.6 फीसदी शरणार्थी स्वीकार किए हैं. इसके अलावा जर्मनी में उसकी कुल जनसँख्या का 1.5 फीसदी शरणार्थी हैं. इसके उलट लेबनान में उसकी कुल जनसँख्या का 12.7 फीसदी, जॉर्डन में 6.3 फीसदी, तुर्की में 4.4 फीसदी शरणार्थी हैं.

लेकिन यूरोप में मेलोनी से लेकर मरीन ली पेन तक धुर दक्षिणपंथी नेताओं और पार्टियों ने इन्हीं इन आप्रवासियों और शरणार्थियों को बढ़ते अपराधों, बेरोजगारी आदि से लेकर सभी संकटों और समस्याओं की जड़ बताते हुए अपने श्वेत-ईसाई समर्थकों में आप्रवासियों खासकर अश्वेत और मुस्लिम आप्रवासियों की कथित बढ़ती जनसँख्या का काल्पनिक डर पैदा किया है और उनके खिलाफ नस्ली/धार्मिक नफरत और घृणा का ऐसा माहौल बनाया है कि आप्रवासियों पर नस्ली हमलों में लगातार इजाफ़ा हो रहा है. इसके कारण यूरोप के ज्यादातर देशों में इस्लामोफोबिया चरम पर है. इससे इन देशों में टकराव और ध्रुवीकरण का ऐसा जहरीला माहौल बन रहा है कि यूरोपीय लिबरल प्रोजेक्ट खतरे में पड़ गया है.

इसलिए इटली और मेलोनी की राजनीति पर नज़र रखने की जरूरत है.                              

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आनंद प्रधान

देश-समाज की राजनीति, अर्थतंत्र और मीडिया का अध्येता और टिप्पणीकार