ये किसका लहू है, कौन मरा?

आजकल नई अर्थव्यवस्था और स्टार्ट-अप्स की ख़ूब चर्चा है. गिग अर्थव्यवस्था के चमकीले सितारों की चकाचौंध से देश अभिभूत है. लेकिन इस नई अर्थव्यवस्था खासकर ई-कामर्स कंपनियों, उबर-ओला जैसी टैक्सी एग्ग्रीगेटर्स, फ़ूड डिलीवरी कंपनियों, 10 मिनट में आपके घर तक रोजमर्रा के सामानों की डिलीवरी करनेवाले स्टार्ट-अप से लेकर आईटी कंपनियों खासकर काल सेंटर में काम करनेवाले लाखों डिलीवरी एजेंटों, ड्राइवरों और प्रोफेशनल्स की मुश्किलों और तकलीफों की कोई बात नहीं होती है.

दूसरी ओर, इस तेज रफ़्तार भागती अर्थव्यवस्था के नीचे दिल्ली के मुंडका जैसी जगहों में इन्फार्मल इकानामी का एक अंडरवर्ल्ड भी काम कर रहा है. सच पूछिए तो नई अर्थव्यवस्था पर धब्बा है मुंडका की आग और सीवर में हो रही मौतें.

पहले दिल्ली के मुंडका इलाक़े में एक चार मंजिला इमारत में लगी आग में 27 मज़दूरों की मौत और फिर न्यू मुस्तफाबाद की फैक्ट्री की आग में एक मजदूर की मौत ने एक बार फिर देश का ध्यान राजधानी में सत्ता और प्रशासन के संरक्षण में नियम-कानूनों की धज्जियाँ उड़ाते हुए फ़ायर सेफ्टी एनओसी और आग से बचाव के उपायों के बिना फैक्ट्री और कारोबारी गतिविधियाँ चलाते हुए सैकड़ों निर्दोष श्रमिकों का जीवन खतरे में डालनेवाली आपराधिक मिलीभगत और लापरवाही की ओर खींचा है. इन दर्दनाक त्रासदियों से साफ़ है कि राज्य सरकार और नगर निगमों के साथ अन्य जिम्मेदार एजेंसियों ने तीन साल पहले हुए अनाज मंडी अग्निकांड से कोई सबक नहीं सीखा जिसमें ऐसी ही परिस्थितियों में 40 मज़दूरों की मौत हो गई थी.

दिल्ली के मुंडका में लगी भीषण आग: कामगारों की जान सबसे सस्ती

उधर, गुजरात में मोरबी में नमक की एक फैक्ट्री में दीवार गिरने से 13 मजदूरों की मौत हो गई जिसमें चार महिलाएं और तीन बच्चे भी शामिल हैं. इधर, बीते सप्ताह नोयडा फेज-2 में सीवर सफाई के लिए बिना सुरक्षा गियर के उतरे दो सफाईकर्मियों की दम घुटने से मौत हो गई. सफाई कर्मचारी आन्दोलन के मुताबिक, पिछले साल स्वतंत्रता दिवस के बाद से अब तक सीवर या सेप्टिक टैंक में दम घुटने से कोई 60 सफाईकर्मियों की जान जा चुकी है. विडम्बना देखिये कि सीवर और सेप्टिक टैंक में दम घुटने से होनेवाली मौतों की ख़बरें अख़बारों में रूटीन ख़बरें बन चुकी हैं जिससे कोई पत्ता भी नहीं खड़कता है. खुद सरकारी रिपोर्टों के मुताबिक, देश में पिछले पांच सालों में सीवर या सेप्टिक टैंक की सफाई करते हुए 300 सीवरकर्मियों की मौत हो चुकी है.                                    

लेकिन मुंडका, मुस्तफाबाद या मोरबी उत्तर उदारीकरण-निजीकरण दौर की तेज रफ़्तार भागती अर्थव्यवस्था के चकाचौंध का वह अँधेरा कोना भी है जिसमें आम मजदूरों को “अदृश्य” बना दिया गया है; जहाँ उनके जान की कोई कीमत नहीं है; उससे ज्यादा जहाँ उनके श्रम की कोई गरिमा नहीं है और उन्हें जानवरों से भी बदतर हालात में काम करना और जीवन गुज़ारना पड़ रहा है. आश्चर्य नहीं कि मुंडका अग्निकांड में मारे गए 27 मज़दूरों में 21 महिला श्रमिक हैं जिन्हें बहुत कम वेतन, काम के लम्बे घंटों, दिहाड़ी मजदूर से भी बदतर सेवाशर्तों और घुटन भरे माहौल में काम करना पड़ रहा था.  

ऐसे मजदूरों और उनके कामकाज की परिस्थितियों को सामाजिक विज्ञान की शब्दावली में “प्रिकैरियस लेबर” की परिघटना यानी ऐसे मजदूरों के रूप में जाना जाता है जिनकी न तो नौकरी सुरक्षित है, न वेतन और न ही जान. ये वे मजदूर हैं जो अनौपचारिक या असंगठित क्षेत्र में वह काम किसी तरह अपनी जीविका चलाने के लिए कर रहे हैं लेकिन उस काम में उनका कोई भविष्य नहीं है. उनके काम की कोई गरिमा नहीं है. वे ढीले-ढाले श्रम कानूनों के दायरे से बाहर हैं, उनके लिए सामाजिक सुरक्षा के प्रावधान सिर्फ कागजों में हैं और सरकारों को उनकी कोई परवाह नहीं है. उनके कामकाज की जगहें और परिस्थितियां कितनी ख़तरनाक हैं, इसका अंदाज़ा मुंडका जैसे हादसों से लगाया जा सकता है.

सच यह है कि राजधानी दिल्ली और पूरे एनसीआर क्षेत्र सहित देश के अधिकांश शहरों और औद्योगिक क्षेत्रों में हजारों-लाखों मुंडका बन गए हैं जो आमतौर पर “अदृश्य” रहते हैं, जब तक कि कोई बड़ा हादसा न हो जाए जिसमें 20-25 मजदूर मारे जाएँ. अन्यथा इन मुंडकाओं और अनाज मंडियों में अक्सर एक-दो मजदूरों की मौत होती ही रहती है जिन्हें कोई नोटिस नहीं करता है और जिसे ‘नार्मल’ मान लिया गया है. 

सीवर में होनेवाली मौतें: ये किसका लहू है, कौन मरा?

एक मायने में मुंडका और अनाज मंडी जैसे इलाकों में फलते-फूलते कारोबार और फैक्ट्रियों को  जिसे अर्थव्यवस्था का अनौपचारिक क्षेत्र कहा जाता है, वह असल में, नव उदारवादी अर्थव्यवस्था का “अंडरवर्ल्ड” है जो चमकती हुई भारतीय अर्थव्यवस्था के ठीक नीचे न सिर्फ फल-फूल रहा है बल्कि अर्थव्यवस्था को तेज रफ़्तार देने में भी उसका बड़ा योगदान है. कारण यह कि जीडीपी में उसका योगदान लगभग 50 फीसदी है. पिछले साल जारी आईएमएफ के एक आकलन के मुताबिक, देश के जीडीपी में अनौपचारिक क्षेत्र का योगदान वर्ष 2011-12 में 53.9 फीसदी था जो बहुत मामूली गिरावट के साथ वर्ष 2017-18 में 52.4 फीसदी पर बना रहा. दूसरी ओर, देश की कुल श्रमशक्ति का लगभग 90 फीसदी असंगठित या अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत है.   

दूसरी ओर, भारतीय अर्थव्यवस्था के औपचारिकीकरण के दावों के बीच सच यह है कि श्रमशक्ति का औपचारिकीकरण यानी सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम वेतन, काम के तय घंटे, छुट्टी और सामाजिक सुरक्षा के प्रावधानों का लाभ आदि अभी भी दूर की कौड़ी है. उलटे पिछले कुछ सालों में अर्थव्यवस्था के औपचारिक और संगठित क्षेत्र में भी मजदूरों को “आउटसोर्सिंग” के जरिए अनौपचारिक ढाँचे में काम करने के लिए मजबूर किया जा रहा है जहाँ “जॉब” से लेकर जान तक की कोई सुरक्षा नहीं है.

इसीलिए मुंडका अपवाद नहीं है. व्यापार और मैन्युफैक्चरिंग से इतर सेवा क्षेत्र खासकर नई डिजिटल अर्थव्यवस्था में ई-कामर्स और एप्प आधारित सेवाओं के उन डिलीवरी एजेंटों या पार्टनरों को ले लीजिए जिनके काम की प्रकृति पूरी तरह से “प्रीकैरियस जाब” की कैटेगरी में आती है जहाँ वेतन, सेवाशर्तें, काम के घंटे, साप्ताहिक छुट्टी, सामाजिक सुरक्षा से लेकर कार्यस्थल पर सुरक्षा तक कुछ भी निश्चित नहीं है. ऐसे ही सीवर और सफाईकर्मियों को ले लीजिए जिनका काम पहले जितना असुरक्षित या “प्रीकैरियस जॉब” था, दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था में भी उतना ही असुरक्षित और “प्रीकैरियस जॉब” बना हुआ है.   

नई अर्थव्यवस्था में पुराना शोषण जारी है

इसके बावजूद कहना मुश्किल है कि मुंडका अग्निकांड या सीवर में आये दिन हो रही मौतें पूरे देश में असंगठित/अनौपचारिक क्षेत्र में और यहाँ तक कि राजधानी दिल्ली में मुश्किल, अनिश्चित और खतरनाक हालातों में काम कर रहे लाखों श्रमिकों की मजबूरी की ओर ध्यान खींच पाएगा. यह सचमुच अफ़सोस और चिंता की बात है कि उदारीकरण के इन तीन दशकों में तेज बढ़ती भारतीय अर्थव्यवस्था अपने करोड़ों श्रमिकों को एक सुरक्षित और गरिमापूर्ण रोजगार देने में भी नाकाम रही है.

लेकिन “प्रीकैरियस जॉब” पैदा करने और बनाए रखनेवाली अर्थव्यवस्था लम्बे समय में खुद को एक असुरक्षित या “प्रीकैरियस अर्थव्यवस्था” बनने से नहीं रोक पाएगी. याद रहे कि किसी भी बड़ी और विकसित अर्थव्यवस्था की पहचान उसमें पैदा होनेवाले रोजगार की गुणवत्ता से होती है.

(नभाटा, दिल्ली में छपे अपने इस लेख को साभार इस उम्मीद के साथ यहाँ शेयर कर रहा हूँ कि आप भी इसे पढ़ सकें, शेयर करें और इस जरूरी सवाल पर बात करें?)

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आनंद प्रधान

देश-समाज की राजनीति, अर्थतंत्र और मीडिया का अध्येता और टिप्पणीकार