समान नागरिक संहिता का आइडिया आकर्षक है लेकिन असली चुनौती उसके स्वरुप और बारीकियों को लेकर आनेवाली है 

क्या समान नागरिक संहिता (यूनिफार्म सिविल कोड) का समय आ गया है?

समान नागरिक संहिता (यूनिफार्म सिविल कोड या यूसीसी) का मुद्दा एक बार फिर सुर्ख़ियों में है. भोपाल में भाजपा कार्यकर्ताओं के सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने समान नागरिक संहिता (यूनिफार्म सिविल कोड) की जिस तरह से जोरदार वकालत की और इस मुद्दे पर विपक्षी दलों पर मुसलमानों को भड़काने का आरोप लगाया, उससे साफ़ हो गया है कि भाजपा इस साल के आखिर में होनेवाले पांच राज्यों के विधानसभा और अगले साल होनेवाले आम चुनावों में इसे बड़ा मुद्दा बनाने जा रही है.

यह सिर्फ संयोग नहीं है कि बीते पखवाड़े 22वें विधि आयोग (ला कमीशन) ने भी एक सार्वजनिक नोटिस जारी करके 30 दिनों में आम लोगों और धार्मिक संगठनों से समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर उनकी राय मांगी है जिसे हाल में 15 दिनों के लिए और बढ़ा दिया गया है. विधि आयोग के मौजूदा अध्यक्ष के मुताबिक, इन दो सप्ताहों में ही आयोग को कोई 8.5 लाख सुझाव मिल चुके हैं.

यह और बात है कि उनके ठीक पहले के 21वें विधि आयोग (2015-18) ने माना था कि राष्ट्रीय स्तर पर समान नागरिक संहिता लागू करना गैर जरूरी और व्यावहारिक रूप से संभव नहीं है. हालाँकि आयोग ने सभी धर्मों के पारिवारिक कानूनों (पर्सनल और फैमिली ला) में संशोधन और उनके संहिताकरण की सिफ़ारिश की थी ताकि उनकी व्याख्या और अमल में अस्पष्टता न रहे.      

हालाँकि इसके बाद समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर कुछ समय के लिए चुप्पी रही लेकिन केंद्र सरकार ने पहले अध्यादेश और फिर 2019 में केन्द्रीय कानून बनाकर मुस्लिम समाज के कुछ हिस्सों में प्रचलित तुरंत तलाक़ या तीन तलाक़ की प्रथा को ग़ैरकानूनी और अमान्य घोषित कर दिया जिसमें तीन तलाक़ देनेवाले पति को तीन साल तक की सजा का प्रावधान है. बीते साल उत्तराखंड विधानसभा चुनावों के साथ यह मुद्दा एक बार फिर से चर्चाओं में आ गया. उत्तराखंड में सुप्रीम कोर्ट की पूर्व जज रंजना देसाई की अध्यक्षता में एक समिति समान नागरिक संहिता का माडल कानून तैयार कर रही है जिसकी रिपोर्ट जल्दी ही आने की उम्मीद है.

इधर, कई और भाजपा शासित राज्य सरकारों जैसे गुजरात और असम आदि ने अपने-अपने राज्यों में समान नागरिक संहिता लागू करने की दिशा में कदम बढ़ाए हैं. भाजपा ने हाल में कर्नाटक विधानसभा चुनावों के दौरान भी समान नागरिक संहिता को मुद्दा बनाया था. मध्यप्रदेश, तेलंगाना और राजस्थान आदि राज्यों के इस साल के आखिर में होनेवाले विधानसभा चुनावों में भी यह एक बड़ा मुद्दा होगा.  

यह सच है कि समान नागरिक संहिता को लेकर भाजपा और उसके नेतृत्ववाली राज्य और केंद्र सरकारों का यह उत्साह नया नहीं है. भाजपा लम्बे समय से देश में समान नागरिक संहिता की मांग उठाती रही है. पिछले तीन दशकों से ज्यादा समय से राम मंदिर निर्माण और जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 को खत्म करने के साथ देश में समान नागरिक संहिता लागू करने का मुद्दा उसके चुनावी घोषणापत्र के सबसे चर्चित मुद्दों में से रहा है. राम मंदिर के निर्माण की शुरुआत और अनुच्छेद 370 को खत्म करने के बाद भाजपा अब यह दिखाना चाहती है कि वह समान नागरिक संहिता को लागू करने के मुद्दे को लेकर भी उतनी ही गंभीर और प्रतिबद्ध है.

असल में, भाजपा ने यह ट्रैप बहुत सोच-समझकर फेंका है. उसे मालूम है कि समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर वह न सिर्फ विपक्ष की ज्यादातर पार्टियों को राजनीतिक रूप से घेर और निहत्था सकती है, उन्हें सामाजिक रूप से दकियानूसी और पिछड़ी सोच का साबित कर सकती है बल्कि उनकी नई-नई बनी एकता में भी दरार डाल सकती है.

उसे अंदाज़ा है कि समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर जहाँ कांग्रेस, एनसीपी, तृणमूल कांग्रेस, डीएमके, सपा, जेडी-यू और आरजेडी जैसी पार्टियों के साथ कुछ कट्टरपंथी मुस्लिम उलेमा और संगठन भी विरोध करेंगे, वहीँ शिव सेना इसका समर्थन करेगी. आम आदमी पार्टी ने सैद्धांतिक रूप से इसका समर्थन करने की घोषणा कर दी है.

हैरानी नहीं होगी, अगर कई विपक्षी पार्टियों खासकर कांग्रेस और वामपंथी खेमे के अन्दर ही विरोध और समर्थन के अलग-अलग सुर सुनाई देने लगें. विडम्बना देखिए कि खुद को धर्मनिरपेक्ष और सामाजिक रूप से प्रगतिशील राजनीति की चैम्पियन कहनेवाली कांग्रेस सहित ज्यादातर विपक्षी पार्टियाँ पारिवारिक कानूनों में सुधार के मुद्दे पर कट्टरपंथी, पिछड़ी और महिला विरोधी सोच के साथ खड़ी नज़र आती हैं जबकि भाजपा प्रगतिशील सुधारों और महिला अधिकारों और न्याय की रहनुमा बनके सामने आती है.

तीन तलाक के मुद्दे पर भी यही हुआ था. कहने की जरूरत नहीं है कि कांग्रेस सहित ज्यादातर विपक्षी पार्टियाँ इस मुद्दे पर अपने ही बनाए अतीत के बाड़े में फंसकर रह गईं हैं. वे आगे देखने या बढ़ने को तैयार नहीं हैं जिस कमजोरी का राजनीतिक फायदा भाजपा उठा रही है.

लेकिन समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर खेले जा रहे इस राजनीतिक फ़ुटबाल को कुछ समय के लिए किनारे रख दें तो यह भाजपा को भी अच्छी तरह से मालूम है कि भारत जैसे सामाजिक-धार्मिक और एथनिक तौर पर इतने विविधतापूर्ण देश में जहाँ विवाह, तलाक़, उत्तराधिकार, गोद लेना आदि को लेकर कई पर्सनल ला और उससे बाहर भी इतनी विविधता और बहुरूपता है, वहां सभी के लिए एक समान पारिवारिक कानून बनाना इतना आसान नहीं होगा. यही नहीं, सभी धर्मों और समुदायों को एक समान पर्सनल ला के लिए तैयार करना एक बड़ी चुनौती है.   

इस चुनौती का अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि समान नागरिक संहिता पर इतने दिनों से चल रही बहस के बावजूद खुद भाजपा या केंद्र सरकार आज तक उसका एक मसौदा तक पेश नहीं कर पाए हैं. समान नागरिक संहिता का आइडिया जितना आकर्षक दिखता है, उसके स्वरुप और बारीकियों को तय करना उतना ही मुश्किल है. इसका अंदाज़ा इससे भी लगाया जा सकता है कि सिर्फ मुस्लिम उलेमाओं और उनके धार्मिक संगठनों की ओर से ही नहीं बल्कि कई आदिवासी संगठनों के साथ अकाली दल और ईसाई संगठनों ने भी इसका विरोध किया है. 

आश्चर्य नहीं कि मौजूदा एनडीए सरकार की ओर से गठित 21वें विधि आयोग ने इसे गैरजरूरी बता दिया था. यह मुद्दा संविधान बनाते हुए और उससे पहले आज़ादी की लड़ाई के दौरान भी कई बार उठा. संविधान सभा में इस मुद्दे पर गंभीर मतभेदों के कारण ही इसे यह कहते हुए टाल दिया गया कि इसके लिए यह उचित समय नहीं है. हालाँकि इसे संविधान के चौथे भाग में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के तहत अनुच्छेद 44 में शामिल किया गया जिसमें यह कहा गया है कि भारतीय गणराज्य “पूरे भारत में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा.”

यह सच है कि संविधान निर्माताओं का यह सपना आज तक पूरा नहीं हो सका है लेकिन ऐसा नहीं है कि इन बीते 75 सालों में विभिन्न धर्मों और समुदायों के पर्सनल ला में सुधार और बदलाव नहीं हुए हैं. कुछ मामलों में विधायिका और कुछ में न्यायालयों के फैसलों के कारण पर्सनल ला में कई बदलाव और सुधार हुए हैं. इसके बावजूद सभी धर्मों और समुदायों के निजी मामलों से जुड़े पारिवारिक कानूनों में ऐसा बहुत कुछ है जो आधुनिक मानवीय और संवैधानिक मूल्यों, महिलाओं को समान अधिकार और लैंगिक न्याय के प्रतिकूल है.

इन पारिवारिक कानूनों में लैंगिक समानता और न्याय, महिलाओं के लिए चयन की स्वतंत्रता से लेकर सहमति (कंसेंट) के अधिकार और तलाक़ से लेकर उत्तराधिकार में संपत्ति के हक़ तक की गारंटी समय की मांग है. इन पारिवारिक कानूनों में पितृसत्तात्मक सोच पर आधारित लैंगिक गैर बराबरी और अन्याय को बढ़ावा देनेवाली प्रथाओं, रीति-रिवाजों और मान्यताओं में बदलाव और संशोधन को अब और नहीं टाला जा सकता है.

यह मांग आज खुद सभी धर्मों और समुदायों की महिलाओं की ओर से भी उठ रही है. अच्छा तो यह होता कि सभी धर्मों और समुदायों की धार्मिक-सामाजिक संस्थाएं और संगठन खुद इस तरह के बदलाव और सुधारों को आगे बढ़ाते. इसमें महिलाओं की अगुवा भूमिका होती. राज्य उन्हें इसका अवसर और जगह देता. धार्मिक-सामाजिक संगठनों के साथ बातचीत और संवाद से सुधारों की जमीन तैयार की जाती. राजनीति इसे धार्मिक ध्रुवीकरण का मुद्दा बनाने और भुनाने के बजाय प्रगतिशील सामाजिक-धार्मिक सुधारों के अनुकूल माहौल बनाती. भारत जैसे विविधता और बहुलतापूर्ण देश में सामाजिक-धार्मिक सुधारों का यह आदर्श रास्ता होता.

लेकिन अफ़सोस कि ऐसा होता नहीं दिख रहा है. जब धार्मिक-सामाजिक संगठन अपने अन्दर खुद सुधार करने में अक्षम हो जाते हैं तो राज्य और उसकी विधायिका के साथ न्यायपालिका को यह ज़िम्मेदारी उठानी पड़ती है. ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जब धार्मिक-सामाजिक संगठनों और संस्थाओं के विरोध के बावजूद संसद और विधानसभाओं ने सामाजिक सुधार के कानून बनाए हैं और उन्हें लागू किया है. उससे धीरे-धीरे समाज में बदलाव और सुधार भी आया है.

यह ठीक है कि उनमें से कई कानूनों को पूरी सामाजिक सहमति न होने पर उनकी धज्जियाँ भी उड़ती हैं. उदाहरण के लिए, बाल विवाह पर रोक के बावजूद देश के कई हिस्सों और समुदायों में बाल विवाह जारी है. इसी तरह सबको पता है कि दहेज़ के खिलाफ कानून का कितना पालन होता है?

निश्चय ही, धार्मिक-सामाजिक सुधारों की राह को रोकने में विभिन्न धर्मों-समुदायों के धार्मिक संगठन, धर्मगुरु, पर्सनल ला बोर्ड और उसके कर्ताधर्ता काफी हद तक जिम्मेदार हैं. लेकिन इस स्थिति के लिए राजनीति खासकर धार्मिक ध्रुवीकरण और नफ़रत की राजनीति भी कम जिम्मेदार नहीं है जिसने विभिन्न समुदायों खासकर अल्पसंख्यकों को अपने ही खोल में सिमटने और इन जरूरी सुधारों के विरोध में खड़ा कर दिया है. इस स्थिति के लिए वह धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील राजनीति भी जिम्मेदार है जिसने समय रहते इन जरूरी सुधारों को आगे नहीं बढ़ाया.

लेकिन राजनीति के बनाए इस गतिरोध को तोड़ने की जिम्मेदारी भी राजनीति की ही है. इस मामले में यह धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील राजनीतिक दलों के लिए अपनी गलती सुधारने का मौका है. दूसरी ओर, एनडीए सरकार को भी इसे चुनावी मुद्दा बनाने के बजाय इस मुद्दे पर सभी धार्मिक-सामाजिक समुदायों से संवाद शुरू करने की पहल करनी चाहिए. यही नहीं, उसे देश के सामने समान नागरिक संहिता का एक मसौदा रखना चाहिए ताकि अँधेरे में तीर चलाने के बजाय सार्थक बहस और बदलाव की शुरुआत हो सके.

("नवभारत गोल्ड" में प्रकाशित टिप्पणी)

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आनंद प्रधान

देश-समाज की राजनीति, अर्थतंत्र और मीडिया का अध्येता और टिप्पणीकार