न्यूयार्क टाइम्स फीचर विवाद: विनोद, तुमने कंटेंट सिंडिकेशन के बारे में नहीं सुना है क्या?

दिल्ली के सरकारी स्कूलों में हुए सकारात्मक बदलावों पर अमेरिकी अख़बार “न्यूयार्क टाइम्स” ने दो दिन पहले अपने अंतर्राष्ट्रीय संस्करण एक लम्बा फीचर छापा. यही फीचर हुबहू एक दिन बाद दुबई (यू.ए.ई) के बड़े अख़बार “खलीज टाइम्स” में भी छपा. इसपर दिल्ली भाजपा के नेताओं ने आरोप लगाया कि यह पेड न्यूज का नमूना है और इसे केजरीवाल सरकार ने पैसे देकर छपवाया है. आखिर एक ही फीचर शब्दशः और एक ही रिपोर्टर की बाईलाइन के साथ दो अलग-अलग अख़बारों में कैसे छपा? ऐसा कैसे हुआ? क्या यह पेड न्यूज है?

असल में, यह मीडिया साक्षरता का प्रश्न है. इस कारण इस सवाल का उत्तर जानना जरूरी है.

इसलिए भी कि सबसे तेज न्यूज चैनल के एक स्टार न्यूज एंकर ने भी इस मसले पर ब्लैक को व्हाइट से अलग करने के अंदाज़ में “न्यूयार्क टाइम्स” और “खलीज टाइम्स” में हुबहू छपे फीचर पर हैरानी जताते हुए दाल में कुछ काला होने का शक जाहिर किया. उनके मुताबिक, यह न्यूयार्क टाइम्स और उस जैसे विदेशी अख़बारों की एजेंडा पत्रकारिता है जो दिन-रात भारत को बदनाम करने में जुटे रहते हैं. उनका सवाल है कि आखिर दिन-रात भारत की आलोचना करनेवाले अख़बार ने दिल्ली की सरकार के स्कूलों में किए गए सुधार की इतनी तारीफ़ क्यों और कैसे कर दी?

लगता है कि हमारे विनोद ने न्यूज मीडिया में कंटेंट सिंडिकेशन या लाइसेंसिंग सेवा के बारे में नहीं सुना है.  

सबसे पहले इस सवाल का उत्तर कि एक ही फीचर दो अलग-अलग अख़बारों में कैसे छपा और क्या यह कोई अनहोनी चीज है जिसे शक की निगाह से देखा जाए?

इसका उत्तर यह है कि यह कतई अनहोनी बात नहीं है. उल्टे यह एक आम बात है. इसे दो अखबारों के बीच समझौते या अरेंजमेंट के तहत छापा जाता है जिसे सिंडिकेशन सर्विस कहते हैं. दुबई के “खलीज टाइम्स” ने “न्यूयार्क टाइम्स” की सिंडिकेशन सर्विस की ओर से जारी फीचर को उसे क्रेडिट देते हुए छापा है.

आश्चर्य नहीं कि आज जब यह पोस्ट लिख रहा हूँ तो दिल्ली से छपनेवाले दो अंग्रेजी अख़बारों- इंडियन एक्सप्रेस और टाइम्स आफ इंडिया के विदेश/अंतर्राष्ट्रीय समाचारों के पन्ने पर न्यूयार्क टाइम्स (एनवाईटी) की एक रिपोर्ट हुबहू दोनों अख़बारों में छपी हुई है. जाहिर है कि यह “न्यूयार्क टाइम्स” और इन दो भारतीय अख़बारों के बीच एक समझौते के तहत छपा है.

पत्रकारिता की पारिभाषिक शब्दावली में सिंडिकेटेड कंटेंट कहते हैं जो एक सिंडिकेशन लाइसेंस के तहत मूल अख़बार (जैसे, न्यूयार्क टाइम्स, वाल स्ट्रीट जर्नल, गार्जियन, वाशिंगटन पोस्ट, फिनान्सियल टाइम्स) दूसरे अख़बारों/डिजिटल न्यूज पोर्टल्स को मुहैया कराते हैं. अपनी सामग्री या कंटेंट के इस्तेमाल के लाइसेंस के बदले में मूल अख़बार/न्यूज मीडिया कंपनी अपने ग्राहक अख़बारों/न्यूज मीडिया कंपनी से समझौते के तहत तय सालाना या मासिक या प्रति कंटेंट निश्चित भुगतान लेती है. दुनिया के बड़े अख़बारों और न्यूज मीडिया कंपनियों की कमाई का एक स्रोत उनकी सिंडिकेशन/कंटेंट लाइसेंसिंग सर्विस भी है.

उदाहरण के लिए, “न्यूयार्क टाइम्स” की 2020 की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक, उसके सिंडिकेशन/लाइसेंसिंग सर्विस के दुनिया के सौ से अधिक देशों में 1500 से अधिक ग्राहक हैं जिनमें अख़बार, पत्रिकाएं और वेबसाइट्स शामिल हैं. “न्यूयार्क टाइम्स” उन्हें अपने लेख/फीचर/फोटो और ग्राफिक्स आदि मुहैया कराता है. भारत के कई अख़बार उसकी इस सेवा के ग्राहक हैं, जैसे दुबई का “खलीज टाइम्स” भी उसका एक ग्राहक है. भारत में “टाइम्स आफ इंडिया” और दूसरे कुछ अख़बार भी कई बार अपने सम्पादकीय पृष्ठ पर भी एनवाईटी से सिंडिकेटेड लेख छापते हैं. हिंदी का “दैनिक भास्कर” भी अपने अख़बार में एनवाईटी समेत कई विदेशी अख़बारों/पत्रिकाओं के सिंडिकेटेड या लाइसेंस्ड लेख/रिपोर्टें छापता है.     

न्यूयार्क टाइम्स अख़बार

मजे की बात है कि भारत में विदेशी न्यूज मीडिया से देशी अख़बारों में सिंडिकेटेड सामग्री के प्रकाशन के बारे में एक सरकारी गाइडलाइन भी है जिसे रजिस्ट्रार फार न्यूजपेपर्स आफ इंडिया (आरएनआई) की वेबसाईट पर देखा जा सकता है. इस गाइडलाइन के मुताबिक, भारत में पंजीकृत सभी भारतीय अखबार विदेशी अख़बारों के साथ कंटेंट शेयर के लिए सिंडिकेशन अरेंजमेंट आटोमैटिक रूट से कर सकते हैं यानी उन्हें सरकार से अनुमति लेने की जरूरत नहीं है बशर्ते वे कुछ शर्तों का पालन करें. इन शर्तों में सबसे महत्वपूर्ण शर्त यह है कि कोई भी भारतीय अखबार अपने कुल प्रिंटेड स्पेस के अधिकतम 20 प्रतिशत स्पेस में ही सिंडिकेटेड सामग्री छाप सकता है. साथ ही, उसे कंटेंट देनेवाले को पूरा क्रेडिट और बाईलाइन देना होगा लेकिन उसका मास्टहेड या पूरा सम्पादकीय या प्रथम पृष्ठ नहीं छाप सकता है.  

विनोद, यह हुई कंटेंट सिंडिकेशन या लाइसेंसिंग अरेंजमेंट के बारे में बात. चलते-चलते यहाँ यह जिक्र भी कर देना जरूरी है कि इंडिया टुडे समूह ने कई विदेशी पत्रिकाओं जैसे कास्मोपोलिटन, हार्पर्स बाज़ार और रीडर्स डाइजेस्ट के भारतीय प्रकाशन का लाइसेंस ले रखा है.

एजेंडा की पत्रकारिता     

अब सवाल यह है कि क्या “न्यूयार्क टाइम्स” एजेंडा की पत्रकारिता करता है? यह एक सब्जेक्टिव सवाल है और इसका उत्तर भी सब्जेक्टिव ही होगा. हाँ, “न्यूयार्क टाइम्स” एजेंडा की पत्रकारिता करता है. लेकिन मुख्यधारा का कौन सा देशी-विदेशी कार्पोरेट अख़बार/न्यूज चैनल है जो एजेंडा की पत्रकारिता नहीं करता है. जाहिर है कि कोई सच्चाई का देवता नहीं है और न ही कोई सच्चाई के 24 कैरेट गोल्ड स्टैण्डर्ड का दावा कर सकता है. सभी का एजेंडा है, झुकाव है और घटनाओं/मुद्दों को देखने-दिखाने का पर्सपेक्टिव है.

सच यह है कि अख़बार अपने वैचारिक झुकाव और पर्सपेक्टिव के लिए पहचाने जाते रहे हैं. किसी भी लोकतान्त्रिक मुल्क में भिन्न-भिन्न विचारों/पर्सपेक्टिव के अखबारों/चैनलों की मौजूदगी उसकी ताकत है.

लेकिन वैचारिक-राजनीतिक लाइन और पर्सपेक्टिव और पार्टी लाइन और स्पिन में फर्क है. बहुतेरे अखबार/न्यूज चैनल इस फर्क को भूल जाते हैं. वे वैचारिक/राजनीतिक लाइन के बजाय पार्टी लाइन के प्रचारक और भोंपू बन जाते हैं.    

दोहराने की जरूरत नहीं है कि “न्यूयार्क टाइम्स” की भी एक वैचारिक-राजनीतिक लाइन है. वह एक लिबरल अखबार है. उसके कवरेज और खासकर सम्पादकीय लेखों पर उसकी छाप रहती है. हालाँकि उसका दावा है कि वह अपने अख़बार में सम्पादकीय और आप-एड पृष्ठ पर विचारों और पर्सपेक्टिव की विविधता को जगह देने की कोशिश करता है लेकिन रिपोर्टिंग में तथ्यों और उनकी एक्यूरेसी पर जोर देता है.

न्यूयार्क में एनवाईटी बिल्डिंग

इसके बावजूद कई मौकों पर उसकी रिपोर्टिंग में कमियां और एथिकल गड़बड़ियाँ हुई हैं. कई मामलों में “न्यूयार्क टाइम्स” की रिपोर्टिंग न सिर्फ पूर्वाग्रहग्रस्त (बायस्ड) और अमेरिकी हितों को आगे बढ़ानेवाली रही है बल्कि इराक युद्ध जैसे कई बड़े मामलों में अमेरिकी प्रोपेगंडा मशीन का हिस्सा भी बनती रही है.

लेकिन यह भी सच है कि “न्यूयार्क टाइम्स” ने वियतनाम युद्ध में अमेरिकी भूमिका की पोल खोलनेवाले पेंटागन पेपर्स जो एक व्हिसलब्लोवर ने लीक कर दिए थे, उसे भी छापने में संकोच नहीं किया था. इसके कारण अमेरिकी सरकार और उसकी विदेश नीति की दुनिया भर में किरकिरी हुई थी. ऐसे और भी मामले हैं जिनमें “न्यूयार्क टाइम्स” की रिपोर्टिंग की चमक दिखाई पड़ती है.

लेकिन “न्यूयार्क टाइम्स” भी आलोचना से ऊपर नहीं है. लेकिन उसकी रिपोर्टिंग की आलोचना का आधार उसका विदेशी होना या किसी सरकार के प्रति क्रिटिकल या समर्थन में होना या उसका अपना एजेंडा होना नहीं हो सकता है. उसकी आलोचना उसकी रिपोर्टिंग में तथ्यों की एक्यूरेसी, सभी तथ्यों को उनके पूरे सन्दर्भ और पृष्ठभूमि के साथ सामने रखने और सभी महत्वपूर्ण और क्रिटिकल स्टेकहोल्डर्स के पर्सपेक्टिव को सामने लाने के आधार पर हो सकती है.   

समझे विनोद?               

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आनंद प्रधान

देश-समाज की राजनीति, अर्थतंत्र और मीडिया का अध्येता और टिप्पणीकार