जहरीली होती हवा से लड़ने के लिए दिल्ली को चाहिए एक ग्रीन पार्टी

सर्दियों की शुरुआत के साथ दिल्ली एक बार फिर गैस चैंबर बन चुकी है. राजधानी की हवा जहरीली हो चुकी है. इस गंभीर प्रदूषण में सांस लेने के लिए मजबूर लोगों खासकर वृद्धों, बच्चों और गंभीर बीमारियों के मरीजों का जीवन और स्वास्थ्य खतरे में है. अस्पतालों में साँस की बीमारी के मरीजों की भीड़ बेतरह बढ़ रही है. स्कूल बंद करने पड़े हैं. एनसीआर के कई उप-नगरों से लेकर उत्तर भारत के कई बड़े शहरों का यही या इससे भी बुरा हाल है. नतीजा, राजधानी का सबसे सुन्दर मौसम साल दर साल एक दु:स्वपन में बदल चुका है.

यह हर मायने में एक “प्रदूषण इमरजेंसी” की स्थिति है. दुनिया के किसी भी विकसित देश की राजधानी और उसके आसपास के इलाकों में ऐसी “प्रदूषण इमरजेंसी” की स्थिति केन्द्रीय और स्थानीय सरकारों की नीतिगत और प्रशासनिक नाकामी के रूप में देखी जाती और उन्हें राजनीतिक रूप से उसकी कीमत चुकानी पड़ती. लेकिन जन-स्वास्थ्य के लिए घातक इस “प्रदूषण इमरजेंसी” की गंभीर स्थिति के प्रति दिल्ली और उसके पड़ोसी राज्यों के साथ केंद्र सरकार की प्रतिक्रिया हैरान और निराश करनेवाली है.

इस चुनौती से निपटने के लिए कोई गंभीर, सकारात्मक और स्थाई समाधान की कोशिश करने बजाय राज्य सरकारें और केंद्र सरकार मौजूदा स्थिति के लिए आपसी आरोप-प्रत्यारोप के जरिये एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराने और अपनी जिम्मेदारी से पीछा छुड़ाने में ही सारी उर्जा खर्च कर रही हैं. सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी और भाजपा के साथ अधिकांश विपक्षी दलों की प्रतिक्रिया भी इस प्रवृत्ति की अपवाद नहीं है. उनमें इस “प्रदूषण इमरजेंसी” की समझ और उसके समाधान को लेकर जबानी जमा-खर्च से इतर कोई गंभीर चिंता, दूर-दृष्टि, कल्पनाशीलता, इच्छाशक्ति, योजना और साहसिक पहलकदमी नहीं दिखाई देती है.

धुंए, धूल और ज़हरीली गैसों में सांस लेने को मजबूर दिल्ली (फोटो साभार: वेदर चैनल)

यही कारण है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में दिल्ली और राजधानी क्षेत्र में प्रदूषण की समस्या बढ़ते-बढ़ते जन-स्वास्थ्य के लिए गंभीर इमरजेंसी की स्थिति में पहुँच गई है. यह साफ़ होता जा रहा है कि मौजूदा राजनीतिक दलों और उनके नेतृत्व के पास इस गंभीर समस्या का न तो कोई समाधान है और न ही समाधान ढूंढने की कोई इच्छाशक्ति दिखाई देती है. तथ्य यह है कि बिना किसी अपवाद के सभी सत्तारूढ़ और विपक्षी दलों के एजेंडे पर पर्यावरण और प्रदूषण के मुद्दे उनकी राजनीतिक प्राथमिकताओं में कहीं नहीं हैं.

अधिकांश राजनीतिक पार्टियों के चुनावी घोषणापत्रों में पर्यावरण की रक्षा और संवर्धन और प्रदूषण से निपटने जैसे मुद्दों का बहुतेरे दूसरे मुद्दों की तरह चलताऊ और सजावटी जिक्र भर होता है. असल में, अधिकांश राजनीतिक पार्टियों की निगाह में पर्यावरण और प्रदूषण कोई वोट खींचू मुद्दे नहीं हैं. उनकी समझ है कि प्रदूषण, पर्यावरण और क्लाइमेट चेंज जैसे मुद्दे अभिजात्य और उच्च मध्यवर्गीय मुद्दे हैं और आम वोटर खासकर गरीब, किसान, मजदूर और निम्न मध्यमवर्गीय वोटर को इनकी कोई खास परवाह नहीं है.     

राजनीतिक निकट-दृष्टि दोष से पीड़ित इस सोच के कारण अधिकांश राजनीतिक पार्टियाँ न सिर्फ पर्यावरण, प्रदूषण और क्लाइमेट चेंज जैसे अत्यंत गंभीर मुद्दों की राजनीतिक अनदेखी करती हैं बल्कि यह उनके बीच राजनीतिक प्रतियोगिता का मुद्दा भी नहीं बन पाता है. नतीजा यह कि दिल्ली और आसपास के इलाकों में “प्रदूषण इमरजेंसी” और पूरे देश में वैश्विक और घरेलू क्लाइमेट चेंज से बिगड़ते पर्यावरण के कारण आम जन-जीवन, जन-स्वास्थ्य, लोगों की आजीविका, कृषि और अर्थव्यवस्था पर पड़नेवाले गंभीर प्रभावों के बढ़ते खतरों और चेतावनियों के बावजूद एक आपराधिक राजनीतिक चुप्पी और लापरवाही बनी हुई है.

भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश में इस राजनीतिक चुप्पी और गतिरोध को तोड़ने का एक ही राजनीतिक तरीका है. असल में, दिल्ली और देश को विकसित पश्चिमी देशों की तरह सिर्फ पर्यावरण, क्लाइमेट चेंज और प्रदूषण जैसे मुद्दों को अपनी पहली, आखिरी और सबसे बड़ी राजनीतिक प्राथमिकता माननेवाली एक प्रगतिशील ग्रीन पार्टी की जरूरत है. एक ऐसी ग्रीन पार्टी जो पर्यावरण, प्रदूषण और क्लाइमेट चेंज के मुद्दों को लोगों की आजीविका, जन-स्वास्थ्य और साफ़-सुथरे, रहने योग्य आधुनिक शहरों और टिकाऊ विकास जैसे मुद्दों से सकारात्मक रूप से जोड़ सके.

यूरोप की तरह दिल्ली और देश को चाहिए ग्रीन पार्टी

इस ग्रीन पार्टी को दिल्ली और देश के सामने पर्यावरण, प्रदूषण और क्लाइमेट चेंज जैसे गंभीर और जटिल मुद्दे से कारगर तरीके से निपटने के लिए एक साफ़ वैज्ञानिक, समावेशी और दूरगामी लेकिन लागू की जा सकनेवाली व्यापक कार्ययोजना सामने रखनी होगी. उसे आम लोगों खासकर गरीबों, मजदूरों, किसानों के अलावा शहरी मध्यवर्ग के बीच वैसे ही ले जाना और जन-आन्दोलन खड़ा करना होगा, जैसे पिछले दशक की शुरुआत में दिल्ली में भ्रष्टाचार के खिलाफ जन-लोकपाल आन्दोलन खड़ा हुआ. उस आन्दोलन से जैसे एक राजनीतिक पार्टी का जन्म हुआ और उसने स्थापित राजनीतिक दलों को तगड़ा झटका दिया. राजनीति में कुछ नए मुद्दे उभरे, राजनीतिक प्रतियोगिता और गतिशीलता बढ़ी और उसके कारण सीमित अर्थों में सही लेकिन राजनीति बदली.     

देश और कम से कम दिल्ली में प्रदूषण और पर्यावरण जैसे मुद्दे पर एक बड़े राजनीतिक बदलाव के लिए जमीन तैयार है. “प्रदूषण इमरजेंसी” से निपटने में लगभग सभी बड़े राजनीतिक दलों और उनकी राज्य और केंद्र सरकारों की नाकामी ने एक नए ग्रीन जनांदोलन और ग्रीन राजनीतिक दल की जरूरत को सामने रखा है. इस नई ग्रीन पार्टी से यह अपेक्षा कतई नहीं है कि वह रातों-रात सब कुछ बदल देगी या तुरंत सत्ता में जायेगी.  

इसके उलट अगर वह शुरूआती दौर में एक राजनीतिक प्रेशर ग्रुप के रूप में उभर सके, यही बड़ी कामयाबी होगी. अगर वह पर्यावरण, प्रदूषण और क्लाइमेट चेंज को दिल्ली जैसे राज्य में राजनीतिक प्रतियोगिता का बड़ा मुद्दा बना सके, उसे राष्ट्रीय और राज्य के राजनीतिक एजेंडे पर प्राथमिकता के मुद्दों में स्थापित कर सके और इस आधार पर लोकसभा और कुछ राज्यों की विधानसभाओं में कुछ सीटें जीत सके तो यह एक नई पर्यावरण आधारित ग्रीन राजनीति के लिए काफी होगा.

कितनी मौतों के बाद जागेंगे हम?

इसे सिर्फ कल्पना की उड़ान या कोई राजनीतिक लंतरानी समझने की भूल नहीं करनी चाहिए. आखिर यूरोप कई देशों में 70 के दशक के उत्तरार्द्ध और 80 के दशक में पर्यावरण, सामाजिक न्याय, टिकाऊ विकास और अहिंसा के विचार के इर्द-गिर्द ग्रीन पार्टियों का जन्म हुआ. आज दुनिया के लगभग 90 देशों में ग्रीन पार्टी सक्रिय हैं और एक दर्जन से ज्यादा देशों की राजनीति में वे निर्णायक भूमिका में हैं. वे कई देशों में सत्तारूढ़ और विपक्षी गठबन्धनों का हिस्सा हैं.

इन पार्टियों की सक्रियता के कारण पर्यावरण-पारिस्थितिकी से जुड़े मुद्दों को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय एजेंडे पर प्रमुखता से लाने में कामयाबी मिली है और सरकारों पर पर्यावरण केन्द्रित साफ़ और नवीकरणीय उर्जा, कचरा निपटान, पब्लिक ट्रांसपोर्ट, बेहतर नगरीय प्रबंधन का दबाव बढ़ा है. इसके कारण यूरोप और दुनिया के कई देशों में उनके शहरों में गंभीर वायु प्रदूषण से लेकर नदियों को साफ़ करने में कामयाबी भी मिली है.

क्या अब भी यह दोहराने की जरूरत है कि दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में मौजूदा  “प्रदूषण इमरजेंसी” और क्लाइमेट चेंज से पैदा हो रही चुनौतियों से कारगर तरीके से निपटने के लिए भारत और कम से कम दिल्ली में एक जुझारू समावेशी-प्रगतिशील पर्यावरण केन्द्रित ग्रीन पार्टी का समय आ गया है?    

(बीते साल नवंबर में "नवभारत टाइम्स" में छपा लेख जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है.)                                         

                                      

        

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आनंद प्रधान

देश-समाज की राजनीति, अर्थतंत्र और मीडिया का अध्येता और टिप्पणीकार