क्या नीतीश कुमार भाजपा के ट्रोजन हार्स हैं?

बिहार में एनडीए छोड़कर नीतीश कुमार और उनकी जेडी-यू एक बार फिर राजद के महागठबंधन में शामिल हो गए हैं. नीतीश कुमार का यह फैसला हैरान भी करता है और हैरान नहीं भी करता है. उन्हें जाननेवाले हैरान नहीं हैं. एक पुरानी राजनीतिक मसल है कि लोहियावादी समाजवादी दो-तीन साल से ज्यादा एक-दूसरे से दूर नहीं रह सकते और एक साल से ज्यादा साथ नहीं रह सकते हैं.

लेकिन कई विश्लेषक और यहाँ तक कि राजद के नेता तेजस्वी यादव को भी नीतीश कुमार का ताज़ा यू-टर्न समाजवादी खेमे में घर-वापसी की तरह दिख रही है.     

जाहिर है कि सेक्यूलर और विपक्षी कैम्प में ख़ुशी का माहौल है. यह स्वाभाविक है. वैसे भी सेक्यूलर कैम्प जिस तरह की निराशा, पस्त-हिम्मती और हारे को हरिनाम के बुरे दौर से गुजर रहा है, उसमें डूबते को तिनके का सहारा भी बहुत है. ऐसे राजनीतिक माहौल में नीतीश कुमार की सेक्यूलर/समाजवादी खेमे में घर-वापसी और बिहार में महागठबंधन की सत्ता में पुनर्वापसी पर ख़ुशी बनती है. यहाँ तक तो ठीक है. 

लेकिन सेक्यूलर खेमे के कई विश्लेषक नीतीश कुमार की घर-वापसी के कुछ ज्यादा ही गहरे और दूरगामी राजनीतिक मायने पढ़ने की जल्दबाजी कर रहे हैं. वे इसे न सिर्फ सेक्यूलर खेमे की बड़ी कामयाबी, समाजवादी खेमे में नई एकजुटता, भाजपा के लिए बड़े झटके, अगले आम चुनावों के लिहाज से गेम-चेंजर, नीतीश कुमार का मास्टर-स्ट्रोक और कुछ उनमें फिर से “पीएम मैटेरियल” देखने लगे हैं.

सेक्यूलर खेमे को एक बार फिर नीतीश कुमार के लम्बे राजनीतिक अनुभव और बिहार में लम्बे समय से मुख्यमंत्री बने रहने की उनकी काबिलियत के साथ सूबे के विकास के लिए किए गए उनके महान काम याद आ रहे हैं.

नीतीश कुमार: गेमचेंजर?

लेकिन नीतीश कुमार की सेक्यूलर कैम्प में पुनर्वापसी का फैसला क्या सचमुच, राष्ट्रीय राजनीति के लिए गेमचेंजर और मास्टरस्ट्रोक है? उत्तर है- नहीं. इसकी वजह यह है कि ऐसे किसी नतीजे पर पहुँचने के लिए इंतजार करना होगा. इसके साथ बहुतेरे किन्तु-परन्तु जुड़े हैं. यह भी देखना होगा कि पटना में आनेवाले दिनों और महीनों में राजनीति कैसे अनफोल्ड करती है.

पहली बात तो यह है कि राष्ट्रीय राजनीति में यह दौर भाजपा के राजनीतिक-वैचारिक दबदबे और वर्चस्व का है. उसके राजनीतिक-वैचारिक दबदबे के आगे सेक्यूलर विपक्षी खेमा न सिर्फ बुरी तरह बिखरा हुआ, निरंतर हार से हताश-निराश, छुद्र निजी महत्वाकांक्षाओं में सीमित और पूरी तरह से दिशाहीन और क्ल्यूलेस है बल्कि उसके पास कोई वैकल्पिक राजनीतिक-वैचारिक नरेटिव और लोगों के सामने पेश करने के लिए बड़ा सपना भी नहीं है.

उदाहरण के लिए, क्या ‘पीएम मैटेरियल’ कहे जा रहे नीतीश कुमार ने भाजपा और एनडीए गठबंधन को किसी बड़े राजनीतिक और वैचारिक कारण से खासकर धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र को बचाने के लिए छोड़ा है? ऐसा कोई दावा उन्होंने नहीं किया है और न ही उन्होंने पिछली बार भाजपा के साथ जाने के अपने फैसले के लिए सार्वजनिक तौर पर कोई पछतावा जाहिर किया है. सच यह है कि उन्होंने कोई राजनीतिक जोखिम नहीं लिया है और लिया भी है तो बहुत कैलकुलेटेड जोखिम लिया है. उसमें कोई राजनीतिक-वैचारिक प्रतिबद्धता और सरोकार नहीं बल्कि राजनीतिक अवसरवाद ज्यादा दिखाई पड़ता है.

नीतीश कुमार राजद नेता तेजस्वी यादव और तेज प्रताप के साथ

सवाल है कि महागठबंधन और जेडी-यू के साथ बनी नई सरकार के पास क्या कोई नई और वैकल्पिक राजनीतिक और वैचारिक दृष्टि है? क्या सरकार बनाने से पहले इसकी ओर से कोई न्यूनतम साझा कार्यक्रम राज्य और देश के सामने रखा गया है? सेक्यूलर और सामाजिक न्याय के नामपर बने इस नए महागठबंधन ने सरकार बनाने और शपथ लेने की जितनी जल्दी दिखाई, उससे पहले क्या राज्य के लोगों के सामने यह स्पष्ट करने की जरूरत नहीं थी कि वह किन प्रगतिशील-लोकतान्त्रिक-धर्मनिरपेक्ष मूल्यों और कार्यक्रमों में विश्वास करती है और उन संवैधानिक मूल्यों के संरक्षण के लिए उसके पास क्या कार्यक्रम है?

सच पूछिए तो देश में सेक्यूलर-लोकतान्त्रिक और सामाजिक न्याय की राजनीति और विचारों को सबसे ज्यादा नुकसान सेक्यूलर और सामाजिक न्याय की राजनीति के अवसरवादी चैम्पियनों ने पहुँचाया है. उन्होंने अपनी छुद्र राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं खासकर कुर्सी तक पहुँचने और कुर्सी बचाने के लिए जिस तरह से सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता की संकीर्ण व्याख्या की है और इसका बार-बार इस्तेमाल किया है, उसके कारण न सिर्फ इन महत्वपूर्ण संवैधानिक मूल्यों और विचारों की चमक फीकी पड़ गई है बल्कि ये राजनीतिक मज़ाक के विषय बन गए हैं.

इन्हीं कारणों से नीतीश कुमार अब बिहार या राष्ट्रीय राजनीति में कोई नई उम्मीद या भरोसा नहीं पैदा करते हैं. वैसे भी राजनीतिक विकल्प सत्ता से नहीं, आन्दोलनों से निकलता है. नीतीश कुमार राजनीतिक-वैचारिक रूप से परस्पर विरोधी कभी इस और कभी उस गठबंधन के साथ लगातार सत्ता में रहे हैं. एक बार फिर जब वे एक गठबंधन छोड़कर आये हैं तो कम से कम अब तक ऐसा नहीं दिखाई पड़ा है कि उनके पास कोई नया और वैकल्पिक विचार है या कोई वैकल्पिक राजनीतिक बिहार माडल है जिसे वे राष्ट्रीय राजनीति में ले जाना चाहते हैं.

एक बार फिर सारा जोर उसी पिटे-पिटाए राजनीतिक फार्मूले पर है जिसमें सभी विपक्षी दलों को एकजुट करने और राजनीतिक जोड़तोड़ और अंकगणित के सहारे चुनाव में भाजपा को पटखनी देने की दिखती है. लेकिन वैकल्पिक विचार, आन्दोलन, जनहित के कार्यक्रमों और देश के लिए बड़े सपनों के बिना विपक्षी एकता की यह राजनीति बार-बार पिट रही है. इस राजनीति की सीमाएं चुनावों के दौरान और उसके बाद एक्सपोज्ड हो चुकी है.  

नीतीश कुमार 8वीं बार शपथ लेते हुए

कहना मुश्किल है कि नीतीश कुमार का ताज़ा फैसला बिहार में अपनी सत्ता और राजनीति बचाने के लिए है या वे भाजपा के ही ट्रोजन हॉर्स के रूप में सेक्यूलर विपक्षी खेमे में आए हैं? तथ्य यह है कि नीतीश कुमार पिछली सरकार की नाकामियों और राजनीतिक यू-टर्न लेने के एक बड़े बैगेज के साथ आए हैं. इस बात की क्या गारंटी है कि यह उनका आखिरी राजनीतिक-वैचारिक यू-टर्न है? उनका पिछला इतिहास ऐसा कोई भरोसा नहीं देता. इसके उलट वे जिस सहजता से इधर से उधर और उधर से इधर आना-जाना करते रहे हैं, उससे उनके भविष्य में फिर पलटने की आशंका ज्यादा है.    

यही नहीं, उनके महागठबंधन के साथ आने के बाद बिहार में विपक्ष का पूरा मैदान भाजपा के लिए खाली हो गया है. भाजपा इस मौके का पूरा इस्तेमाल करेगी. नई सरकार के लिए काम करना आसान नहीं होगा. दूसरे, खुद राजद खासकर लालू प्रसाद के परिवार और जेडी-यू के अन्दर कई महत्वाकांक्षी नेता हैं जो हर दिन गलत कारणों से सुर्खियाँ बनाने में माहिर हैं. तीसरे, नई सरकार के पास सिर्फ डेढ़ से दो साल हैं जिसमें उसे विपरीत राजनीतिक परिस्थितियों में भी बिहार में चमत्कार करना है और लोगों की अपेक्षाओं, उम्मीदों और आकांक्षाओं पर खरा उतरना है.

नई सरकार को संवैधानिक मूल्यों के प्रति वैचारिक दृढ़ता, राजनीतिक और प्रशासनिक शुचिता, मंत्रियों और नेताओं के उच्च आदर्श व्यवहार, समावेशी और टिकाऊ विकास, सामाजिक न्याय के दायरे के विस्तार के साथ लोगों के सामने बड़े सपने रखने होंगे.

क्या ऐसा हो पाएगा? इतिहास को गलत साबित करने की जिम्मेदारी महागठबंधन के नेताओं और खुद नीतीश कुमार पर है.

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आनंद प्रधान

देश-समाज की राजनीति, अर्थतंत्र और मीडिया का अध्येता और टिप्पणीकार