दुनिया-जहान: यूरोप के वैक्सीन बागी, जर्मनी में ट्रैफिक लाईट गठबंधन, पोलैंड-बेलारूस सीमा पर शरणार्थी संकट और सूडान का ‘थावरा’

यूरोप के वैक्सीन विरोधी बगावत पर उतारू हैं. यूरोप के इन नए बागियों ने कोरोना वैक्सीन और कोरोना संबंधी प्रतिबंधों, सामाजिक व्यवहार के निर्देशों और हेल्थ-पास के खिलाफ हल्ला बोल दिया है. वे न तो वैक्सीन लगवाने को तैयार हैं और न ही कोरोना संबंधी प्रतिबंधों को स्वीकार करने को तैयार हैं.

बीते सप्ताह यूरोप के ये वैक्सीन बागी एक बार फिर सड़कों पर उतर आए. वे “आज़ादी” और “प्रतिरोध” के नारे लगाते हुए यूरोप के कई शहरों में बड़े-बड़े और उग्र प्रदर्शन कर रहे हैं, पुलिस से भिड़ रहे हैं, आगजनी और हिंसा कर रहे हैं. पुलिस और सरकारों के लिए उन्हें संभालना और समझाना मुश्किल हो रहा है.

यूरोप के नीदरलैंड, आस्ट्रिया, बेल्जियम, क्रोएशिया, इटली, आयरलैंड, जर्मनी, फ़्रांस सहित अनेकों देशों में वैक्सीन बागियों के प्रदर्शनों ने सरकारों और नागरिक समाज को हिला कर रख दिया है.     

साभार: फर्स्ट ड्राफ्ट न्यूज

दूसरी ओर, यूरोप के अधिकांश देश इस समय कोरोना महामारी खासकर उसके डेल्टा वैरिएंट के संक्रमण की पांचवीं लहर के बीच से गुजर रहा है. हालत यह है कि इस समय दुनिया में कोरोना संक्रमण के हर 100 नए मामलों में से 54 मामले यूरोप से आ रहे हैं. हर दिन कोरोना संक्रमण के औसतन तीन लाख और हर तीन दिन में औसतन 10 लाख मामले दर्ज किये जा रहे हैं. हर दिन औसतन चार हजार लोगों की मौत हो रही है.  

यूरोप के लगभग सभी बड़े-छोटे देशों- जर्मनी, ब्रिटेन, रूस, इटली, नीदरलैंड, पोलैंड, रोमानिया, आस्ट्रिया, चेक गणराज्य, स्लोवाकिया, ग्रीस और फ़्रांस आदि में कोरोना के मामले लगातार बढ़ रहे हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ.) की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, हालात ऐसे ही बने रहे तो अगले साल मार्च तक यूरोप में लगभग सात लाख और लोगों की कोरोना से मौत हो सकती है.

याद रहे कि यूरोप में कोरोना महामारी की शुरुआत से अब तक लगभग लगभग 7.1 करोड़ लोग संक्रमित हो चुके हैं और कोई 16.41 लाख लोगों की मौत हो चुकी है.

महामारियों ने लोगों की बेवकूफियां और मूर्खताएं पहले भी देखीं हैं. इतिहास बताता है कि महामारियों को फ़ैलाने और बढ़ाने में इंसानी बेवकूफियों, जिद और बेतुके फैसलों की बड़ी भूमिका रही है.

देखिए, एक बार फिर इतिहास बीच में आ गया. क्या करें, दुनिया-जहान का इतिहास से पीछा नहीं छूट रहा है. या कहें कि आज की घटनाओं और मुद्दों का इतिहास से कोई न कोई संबंध निकल ही आता है, इसलिए बार-बार इस स्तंभकार को इतिहास की ओर लौटना पड़ता है.   

महामारियों को ही लीजिये. महामारियों के बिना मानव-जाति के इतिहास की कल्पना मुमकिन नहीं है. हजारों साल के इतिहास में महामारियों ने मानव-जाति की खूब परीक्षा ली है. उसने महामारियों के दौरान मनुष्यता के सबसे बेहतरीन और सबसे बदतर उदाहरण देखे हैं. साथ ही, इंसानी मूर्खताएं भी खूब देखी गईं हैं जो एक बार फिर यूरोप और दुनिया के कई देशों में देखी जा रही हैं.    

असल में, यूरोप और महामारियों का एक त्रासद रिश्ता रहा है. पिछली कई सदियों से यूरोप महामारियों की सबसे तकलीफदेह मार झेलता रहा है. इतिहास में यूरोप ने कई महामारियां देखीं, उनमें करोड़ों लोगों की मौतें हुईं और उसने वहां के समाज पर गहरा असर डाला. 14वीं सदी के मध्य में ‘ब्लैक डेथ’ के नाम से जाने-जानेवाले ब्यूबोनिक प्लेग में यूरोप की लगभग आधी आबादी खत्म हो गई. इसी तरह इन्फ्लुएंजा महामारी में 19-20वीं सदी में लाखों लोगों की मौत हुई.

लेकिन लगता है कि यूरोप की आबादी के एक अच्छे-खासे हिस्से ने महामारियों के पिछले अनुभवों और इतिहास से ज्यादा कुछ नहीं सीखा है. यहाँ तक कि वे कोरोना महामारी से भी कोई सबक सीखने को तैयार नहीं हैं. वे वही बेवकूफियां करने पर उतारू हैं जिनसे वायरस को फैलने और अपना रूप बदलकर (म्यूटेट) और खतरनाक होने में मदद मिलती है. वे वैक्सीन नहीं लगवा रहे और कोरोना के प्रसार को रोकने के लिए लगाए जा रहे प्रतिबंधों, नियमों और सामाजिक व्यवहार के निर्देशों को मानने को तैयार नहीं हैं.  

लेकिन जो इतिहास से सबक नहीं लेता, वह उसे दोहराने को अभिशप्त होता है. यूरोप के वैक्सीन बागियों के कारण आम नागरिकों के साथ वे खुद भी उसकी कीमत चुका रहे हैं. लेकिन वह समझने को तैयार नहीं हैं. वे वैक्सीन न लगवाने को अपनी ‘व्यक्तिगत और चयन की आज़ादी’ और ‘वैयक्तिक स्वायत्तता’ से जोड़कर देखते हैं. वे वैक्सीन की अनिवार्यता संबंधी हेल्थ पास और कोरोना प्रतिबंधों को अपनी आज़ादी पर हमला मानते हैं और उसका खुलकर विरोध करते हैं.  

इन वैक्सीन बागियों में भांति-भांति के लोग हैं. इनमें धुर-दक्षिणपंथी समूहों, फ़ुटबाल फैन्स, प्रकृतिवादियों, कांस्पिरेसी थियरी में विश्वास करनेवालों के साथ-साथ वाम और दक्षिण दोनों ही वैचारिक खेमे के अति-उदारवादी तत्व भी शामिल हैं. जैसे, भारत में वैक्सीन का विरोध करनेवालों में लेफ्ट-लिबरल प्रशांत भूषण भी शामिल हैं.          

नतीजा, यूरोप के कई देशों में कोरोना के डेल्टा वायरस का कहर फिर से पीक पर पहुँच रहा है. अस्पताल एक बार फिर से उन कोरोना संक्रमित मरीजों से भर रहे हैं जिन्होंने वैक्सीन नहीं लगवाई है. डाक्टर और पैरा-मेडिकल स्टाफ फिर से दबाव में हैं और उनका धैर्य जवाब दे रहा है.           

जर्मनी में ट्रैफिक लाईट गठबंधन

जर्मनी में मौजूदा चांसलर और क्रिश्चियन डेमोक्रेट पार्टी (सी.डी.यू.) की नेता एंजेला मर्कल के 16 वर्षों के शासन के बाद विपक्षी दल- सोशल डेमोक्रेट पार्टी (एस.पी.डी) के नेता ओलाफ़ शोल्ज़ के नेतृत्व में ट्रैफिक लाईट गठबंधन सत्ता सँभालने जा रहा है.

साभार: सोशल यूरोप

आप कहेंगे कि यह ट्रैफिक लाईट गठबंधन क्या है?

हैरान मत होइए. असल में, ‘प्रगति को गले लगाओ’ (इम्ब्रेस प्रोग्रेस) नारे के साथ गठित इस गठबंधन में जर्मनी की तीन पार्टियाँ शामिल हैं- सोशल डेमोक्रेट (एस.पी.डी), पर्यावरणवादी ग्रीन पार्टी और बाज़ार/बिजनेस समर्थक फ्री डेमोक्रेट पार्टी (एफ.डी.पी.). इन तीनों पार्टियों के झंडों के रंग अलग-अलग हैं और उन्हें उनके रंगों- लाल, हरे और पीले के कारण पहचाना जाता है. ये रंग ट्रैफिक लाईट में भी होते हैं, इसीलिए इसे ट्रैफिक लाईट गठबंधन कहा जा रहा है.

जो लोग भारत में राजनीतिक गठबन्धनों को बुरा-भला कहते रहते हैं और उसे राजनीतिक स्थिरता और विकास विरोधी बताते रहते हैं, उन्हें जर्मनी की राजनीति और उसमें गठबन्धनों की भूमिका पर जरूर गौर करना चाहिए. जो अपने यहाँ राजनीतिक पंडित और टीकाकार गठबन्धनों की आपसी खींचतान और मोलतोल से परेशान रहते हैं, उन्हें जर्मन ट्रैफिक लाईट गठबंधन को देखना चाहिए.

यह ट्रैफिक लाईट गठबंधन आसानी से नहीं बना है. गार्डियन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 26 सितम्बर को हुए आम चुनावों में विपक्षी सोशल डेमोक्रेट को मामूली बढ़त मिलने के बाद अनेक मुद्दों पर मतभेदों के बावजूद इन तीनों पार्टियों को साथ लाने के लिए बातचीत शुरू हुई थी. दो महीने तक इन पार्टियों के बीच सघन बातचीत चली, काफी मोलतोल और खींचतान के बाद यह गठबंधन बन पाया है.   इस बातचीत में 22 वर्किंग ग्रुप और लगभग 300 वार्ताकार शामिल थे. समझौता दस्तावेज 177 पृष्ठों का है.

इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि बातचीत और समझौते की यह प्रक्रिया कितनी लम्बी, पेंचदार, टेढ़ी, उतार-चढ़ाव भरी और थकानेवाली थी. लेकिन इस समझौता बातचीत में खासी गोपनीयता बरती गई. राजनीतिक पंडित गठबंधन के वार्ताकारों को यह श्रेय दे रहे हैं कि इस बातचीत के डिटेल्स प्रेस में लीक नहीं हुए.

रिपोर्टों के मुताबिक, एस.पी.डी के नेता ओलाफ़ शोल्ज़ नए चांसलर (राष्ट्रपति) होंगे जबकि ग्रीन पार्टी की नेता अन्नालीना बेयरब़ाक विदेश मंत्री बन सकती है. वहीँ वित्त मंत्रालय एफ.डी.पी नेता क्रिश्चियन लिंडनर के पास जा सकता है. उम्मीद है कि जर्मनी में नई सरकार दिसंबर के दूसरे सप्ताह में सत्ता संभाल सकती है.

इस ट्रैफिक लाईट गठबंधन को साथ लाना जितना मुश्किल और टेढ़ा था, उससे ज्यादा मुश्किल उसे चलाना होगा. साफ़ है कि इस गठबंधन के लिए आगे का रास्ता आसान नहीं होगा, खासकर उनके वैचारिक और राजनीतिक मतभेदों को देखते हुए.

असल में, तीनों पार्टियों का राजनीतिक एजेंडा एक-दूसरे से काफी अलग है और अनेकों मुद्दों पर उनमें टकराव भी है. ग्रीन पार्टी का फोकस पर्यावरण, क्लाइमेट चेंज और ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रित करने पर है जबकि एफ.डी.पी मुक्त बाज़ार और नव उदारवादी आर्थिकी की समर्थक है. एस.पी.डी का जोर सामाजिक सुरक्षा, न्यूनतम वेतन बढ़ाने और किफ़ायती हाउसिंग आदि पर है.

साभार: द लोकल.डीई

इसके बावजूद इस गठबंधन ने शुरूआती फैसलों में कई महत्वपूर्ण एलान किए हैं जिनमें वर्ष 2030 तक कोयले के इस्तेमाल को बंद करना शामिल है. इससे पहले जर्मनी ने वर्ष 2038 तक कोयले को फेज आउट करने का डेडलाइन रखा था. इसी तरह गैस से चलनेवाले बिजलीघर और कम्बस्टन इंजिन 2040 तक फेज आउट कर दिए जाएंगे. जर्मनी 2045 तक नेट जीरो और क्लाइमेट न्यूट्रल देश होगा. नई सरकार न्यूनतम मजदूरी 12 यूरो करेगी और 4 लाख किफ़ायती घर बनवाएगी. साथ ही, सरकार भांग/गांजे को भी कानूनी मान्यता देने जा रही है.  

लेकिन ट्रैफिक लाईट गठबंधन एक ऐसे समय में सत्ता सँभालने जा रहा है जब जर्मनी कोरोना संक्रमण की चौथी लहर के बीच से गुजर रहा है और कोरोना संक्रमण के मामले एक बार फिर तेजी से बढ़ रहे हैं. कोरोना महामारी की शुरुआत के बाद पिछले डेढ़ साल में यह सबसे बदतर दौर है जिसमें कोरोना के नए मामले पिछली पीक से आगे निकल गए हैं. इसके बावजूद जर्मन नागरिकों का एक समूह टीकाकरण और कोरोना संबंधी प्रतिबंधों के खिलाफ है.

नई सरकार के सामने चुनौती यह भी है कि वह यूरोपीय संघ को किस दिशा में ले जाना चाहेगी? यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के अलग हो जाने के बाद एकीकृत यूरोप के सपने को गहरा धक्का लगा है. यही नहीं, यूरोपीय संघ कई आंतरिक अंतर्विरोधों और राजनीतिक उथल-पुथल से गुजर रहा है. ऐसे में, यूरोपीय संघ को पटरी पर रखने और उसे नेतृत्व देने की जिम्मेदारी जर्मनी पर ही है.

ओलाफ़ शोल्ज़ को यह भी याद रखना होगा कि आनेवाले दिनों में लगातार उनकी तुलना मर्कल से होगी जो जर्मन और यूरोपीय राजनीति में 15 सालों तक छाई रहीं हैं.                                     

बेलारूस-पोलैंड सीमा पर शरणार्थी संकट          

इधर, यूरोपीय राजनीति पिछले कई सालों से एक बड़े नैतिक संकट से जूझ रही है. वह संकट है- शरणार्थियों और आप्रवासियों का! यह संकट दिन पर दिन बड़ा होता जा रहा है और यूरोपीय प्रोजेक्ट के लिए एक बड़ी नैतिक और राजनीतिक चुनौती बन गया है. यूरोप को समझ में नहीं आ रहा है कि वह इस मानवीय त्रासदी से कैसे निपटे?

इन दिनों यूरोप में भारी ठण्ड के बीच बेलारूस और पोलैंड की सीमा इस मानवीय त्रासदी की नई गवाह बन गई है जहाँ बेलारूस की ओर से दो हजार से ज्यादा शरणार्थी पोलैंड में घुसने की कोशिश कर रहे हैं. इनमें से ज्यादातर शरणार्थी मध्य-पूर्व के देशों के हैं. पोलैंड ने अपनी सीमा कंटीले बाड़ लगाने के साथ-साथ सीमा क्षेत्र में इमरजेंसी घोषित करके वहां सुरक्षा बलों को तैनात कर दिया है जो शरणार्थियों को अपने देश में घुसने से रोकने के लिए पानी की बौछारें करने, आंसू-गैस के गोले छोड़ने और ताकत का इस्तेमाल कर रहे हैं.

साभार: फारेन पालिसी

कहने की जरूरत नहीं है कि यूरोपीय संघ का सदस्य- पोलैंड यह सब संघ की मौन सहमति और इशारे पर ही कर रहा है. यूरोपीय संघ का आरोप है कि बेलारूस की लुकाशेन्को सरकार जानबूझकर और योजना के साथ यूरोप को सबक सिखाने के लिए मध्य-पूर्व के देशों से आनेवाले शरणार्थियों को उदारता से वीसा बांटकर हवाई जहाज में भरकर बेलारूस ले आ रही है और अपने सुरक्षा बलों की मदद से उन्हें पोलैंड की सीमा पर भेजकर उन्हें पोलैंड और यूरोप में घुसाने की कोशिश कर रही है.

यूरोपीय संघ का आरोप है कि चूँकि उसने बेलारूस की तानाशाह लुकाशेंको सरकार की मनमानियों, अलोकतांत्रिक तौर-तरीकों और मानवाधिकार हनन को रोकने के लिए उसपर कई प्रतिबंधों की घोषणा की थी जिससे बौखलाई लुकाशेंको सरकार शरणार्थी संकट पैदा करके यूरोपीय संघ पर दबाव डालने और बदला निकालने की कोशिश कर रही है.

दूसरी ओर, बेलारूस का कहना है कि हालाँकि शरणार्थियों से उसका कोई लेना-देना नहीं है लेकिन उन्हें यूरोप प्रवेश का नैतिक अधिकार है और पोलैंड को उन्हें रोकना नहीं चाहिए. बेलारूस का आरोप है कि यह पूरी समस्या पोलैंड और यूरोपीय संघ ने खड़ी की है जिन्हें शरणार्थियों के मानवाधिकारों और हक़ की कोई चिंता नहीं है. वह तो उनकी मदद करके अपनी नैतिक जिम्मेदारी निभा रहा है.

जाहिर है कि सच इन दोनों नरैटिव के बीच कहीं है. लेकिन बड़ी बात यह है कि यूरोपीय संघ/पोलैंड बनाम बेलारूस/रूस की इस राजनीतिक लड़ाई में ये गरीब शरणार्थी मोहरे भर बनकर रह गए हैं. उन्हें इस लड़ाई की कीमत चुकानी पड़ रही है. इस भारी ठण्ड में खुले में पानी की बौछारों के बीच कंटीले तारों का सामना कर रहे शरणार्थियों में नौ से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है. वे थक गए हैं और उम्मीद छोड़ रहे हैं.     

बेलारूस की तानाशाह लुकाशेंको सरकार की मनमानियों और अलोकतांत्रिक तौर-तरीकों को दुनिया जानती है. लेकिन इस विवाद ने एक बार फिर यूरोपीय संघ की कथनी और करनी के फर्क को उजागर कर दिया है. यूरोपीय संघ और खासकर जर्मनी-फ़्रांस-इटली-नीदरलैंड-स्पेन-पुर्तगाल आदि देश शरणार्थी अधिकारों और उनके प्रति अपने दयालुतापूर्ण और सकारात्मक रुख का चाहे जितना दावा करें लेकिन सच्चाई सबके सामने है.

यूरोपीय संघ चाहे जितना इनकार करे लेकिन पोलैंड को उसकी परोक्ष शह है. यूरोपीय संघ ने पिछले कुछ वर्षों में ऐसे कई देशों से शरणार्थियों को यूरोप में घुसने से रोकने के लिए समझौते किए हैं जिनसे शरणार्थी यूरोप आ सकते हैं.                  

असल में, हाल के वर्षों में मध्य-पूर्व और उत्तरी अफ्रीका के उन कई देशों से अच्छी-खासी संख्या में शरणार्थी समुद्र और जमीनी रास्ते से यूरोप पहुँचने और वहां शरण लेने/बसने की कोशिश कर रहे हैं जो आंतरिक युद्धों, संघर्षों और राजनीतिक अस्थिरता के शिकार हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि इन देशों को राजनीतिक अस्थिरता, कनफ्लिक्ट और गृहयुद्ध में झोंकने में अमेरिका के साथ-साथ यूरोपीय संघ के सदस्य देशों की भी बड़ी और सीधी भूमिका है जिनके कारण वे हिंसा, बर्बादी, भूखमरी-बीमारी और असुरक्षा के ऐसे दुश्चक्र में फंस गए हैं जिससे बचने के लिए हजारों लोग यूरोप की ओर भाग रहे हैं. ये शरणार्थी जिस तरह छोटी-छोटी नावों में खचाखच भरकर समुद्र पार कर यूरोप पहुँचने की कोशिश करते हैं, उसमें कई बार ये नावें डूब जाती हैं और दर्जनों लोग मारे जाते हैं.

साभार: टीआरटीवर्ल्ड

इसी सप्ताह बुधवार को इंग्लिश चैनल पार करके ब्रिटेन पहुँचने की कोशिश कर रही एक छोटी नाव डूब गई जिसमें एक गर्भवती महिला और तीन बच्चों सहित कुल 27 शरणार्थियों की दुखद मौत हो गई.     

यूरोप के लिए यह शरणार्थी संकट एक मानवीय त्रासदी में बदलता जा रहा है जिसे पैदा करने और त्रासदी में बदलने की नैतिक और राजनीतिक जिम्मेदारी यूरोप पर ही है. यूरोप इससे आँखें नहीं चुरा सकता है.

सूडान: ‘थावरा’ ज़ारी है

उधर, सूडान में सैन्य तख्तापलट के खिलाफ लोकतंत्र बहाली और सेना को बैरकों में वापस भेजने को लेकर जारी ‘थावरा’ (क्रांति) सैन्य दमन और उत्पीड़न के बावजूद पीछे हटने के लिए तैयार नहीं है. सैन्य तख्तापलट के खिलाफ देश में जारी विरोध प्रदर्शनों में अब तक 40 से अधिक लोग मारे गए हैं, सैकड़ों लोग घायल हैं और हजारों गिरफ्तार कर लिए गए हैं.

बीते रविवार को राजधानी खार्तूम से यह खबर आई कि अमेरिकी राजनयिक मध्यस्थों की पहलकदमी से सैन्य जनरलों और राजनीतिक नेताओं के बीच एक समझौता हो गया है जिसके तहत सेना तख्तापलट में हटाए गए प्रधानमंत्री अब्दल्ला हम्डोक को बहाल करने के लिए तैयार हो गई है. हम्डोक ने इस समझौते का स्वागत किया है.

साभार: ग्लोबल सिटिज़न

लेकिन सैन्य तख्तापलट के खिलाफ जारी जन-प्रतिरोध आन्दोलन के नेता इस समझौते से खुश नहीं हैं. इस आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे सूडानी प्रोफेशनल्स एसोशियेशन ने यह कहते हुए इस समझौते को ख़ारिज कर दिया है कि यह ‘समझौता लोगों की उम्मीदों से काफी कम’ और ‘कागज पर स्याही से ज्यादा नहीं है.’

आंदोलनकारी सूडान में एक चुनी हुई नागरिक सरकार को सत्ता के पूर्ण हस्तांतरण और सेना को बैरकों में वापस लौटने से कम किसी भी समझौते के लिए तैयार नहीं हैं. सेना के जनरल भी यह समझ गए हैं कि उनके पास बहुत आप्शन नहीं रह गए हैं. वे फेस-सेविंग फार्मूला खोज रहे हैं और चाहते हैं कि आनेवाली सिविलियन सरकार सेना के उन अधिकारियों और सैनिकों पर कार्रवाई नहीं करे और उन्हें आम माफ़ी देने का एलान करे जिनपर मानवाधिकारों के उल्लंघन, नागरिकों दमन-उत्पीड़न और नरसंहारों के आरोप हैं.

ताजा समझौता मजबूत होते लोकतंत्र बहाली आन्दोलन से घबराई सेना के थोड़ा पीछे हटने और लोगों का ध्यान भटकाने के साथ आन्दोलन को कमजोर करने की रणनीति का हिस्सा लग रहा है. लेकिन आम लोग सैन्य जनरलों के इस खेल को समझ गए हैं. वे पीछे हटने को तैयार नहीं हैं. लगता नहीं है कि इस समझौते से सूडान में शांति लौटनेवाली है.

आइन्स्टीन के सापेक्षता के नोट्स

साभार: वाशिंगटन पोस्ट

इस सप्ताह आइंस्टीन के हाथ से लिखे सापेक्षता के सिद्धांत संबंधी नोट्स पेरिस में एक नीलामी में रिकार्डतोड़ कीमत- 11.6 करोड़ यूरो में बिक गए. नीलामी की आयोजक क्रिस्टी को भी इतनी कीमत मिलने की उम्मीद नहीं थी. इससे पहले आइंस्टीन के हाथ से लिखे कथित “गाड लेटर” के लिए 2018 में 28 लाख यूरो और ‘ख़ुशी के राज’ पत्र के लिए 2017 में 15.6 लाख यूरो की कीमत मिली थी.

आइंस्टीन ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि उनकी हस्तलिपि और दस्तावेजों की इतनी कीमत लगेगी.              

इस सप्ताह इतना ही. अगले सप्ताह फिर हाजिर होंगे, दुनिया-जहान की कुछ और रिपोर्टें लेकर.

इस बीच, आप अपनी फीडबैक भेजते रहिये.  

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आनंद प्रधान

देश-समाज की राजनीति, अर्थतंत्र और मीडिया का अध्येता और टिप्पणीकार