यूक्रेन पर रूस-अमेरिका आमने-सामने: क्या दुनिया विश्वयुद्ध की ओर बढ़ रही है? हांडूरस में लेफ्ट, लीबिया में चुनाव और मर्कल की चेतावनियाँ

कुछ चीजें लौट-लौटकर आती रहती हैं. शीत युद्ध खत्म हुए तीन दशक से ज्यादा हो गया लेकिन एक बार फिर शीत युद्ध की भाषा, जुमले और मुहावरे वायरस की तरह हवाओं में तैर रहे हैं. कभी यूक्रेन और कभी ताइवान के मुद्दे पर महाशक्तियों के बीच तकरार विश्व युद्ध की चेतावनियों और आशंकाओं तक पहुँच जा रही हैं.

दिसंबर का महीना है. विदाई का भी और स्वागत का भी. कुछ जा रहे हैं और कुछ आ रहे हैं.

बीते सप्ताह जर्मनी की 16 साल तक चांसलर रहीं एंजेला मर्कल को औपचारिक विदाई दी गई. इस मौके पर भावुक हो उठीं मर्कल ने कई महत्वपूर्ण बातें कहीं. 

उधर, हांडूरस में भी भ्रष्टाचार और ड्रग-कोकीन तस्करों को बढ़ावा देने के आरोपों से घिरे राष्ट्रपति हुआन ओरलांडो हर्नान्देज़ की विदाई तय हो गई. वहां एक और कास्त्रो, वह भी वामपंथी नेता आ रही हैं.

हांडूरस की नई राष्ट्रपति सियोमारा कास्त्रो (सौजन्य: पीपुल.काम)

क्या दक्षिण अमेरिका में एक दशक बाद फिर से कई रंगों में झिलमिलाते वामपंथ की वापसी हो रही है?

याद रहे कि 1999 से 2015 के बीच दक्षिण अमेरिका के कई देशों में लाल रंग के शेड की सरकारें सत्ता में आईं जिसे अमेरिकी कार्पोरेट मीडिया गुलाबी लहर (पिंक टाईड) बताता रहा है. हालाँकि अमेरिका ने अपने पिछवाड़े में इस गुलाबी लहर को रोकने या उसकी राह में कांटे बिछाने में कोई कसर नहीं उठा रखी.

हालाँकि पिछले छह वर्षों में कई दक्षिण अमेरिकी देशों में वामपंथी राजनीति को गहरा धक्का लगा है, कई देशों में धुर दक्षिणपंथी सरकारें सत्ता में लौटी हैं. लेकिन हाल के महीनों में ब्राजील से लेकर चिली तक वामपंथी राजनीति में नई हलचल दिखी है. 

हांडूरस के बाद मुकाबले का अगला मैदान चिली है    

चिली में अगले दो हप्ते में राष्ट्रपति चुनावों में दूसरे और फाइनल दौर के लिए वोट पड़ना है. मुकाबला है- धुर दक्षिणपंथी और ट्रंप/बोल्सनारो मार्का नेता जोस अंतोनियो कास्ट और वामपंथी मोर्चे के गाब्रिएल बोरिक के बीच. चिली के वोटरों को फैसला करना है कि वे निरंतरता चाहते हैं या बदलाव?

चिली वह देश है जहाँ अमेरिका समर्थित सैन्य तानाशाह जनरल पिनोशे की अगुवाई में वाशिंगटन सहमति के तहत सबसे पहले नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की शुरुआत हुई थी. क्या चिली में ही नव उदारवाद का अंत होगा या उसे नई जान मिलेगी? इस चुनाव पर दुनिया भर की आँखें लगी हुई हैं.

लीबिया में चुनाव से शांति आएगी?  

इधर, लीबिया में भी इस महीने राष्ट्रपति चुनाव के लिए पहले दौर की वोटिंग होनी है. लीबिया की आपको याद है या भूल गए? वही कर्नल मुअम्मर गद्दाफी वाला लीबिया जिसकी रंग-बिरंगी कहानियां 70-80 के दशक में सुर्ख़ियों में रहती थी.

वही लीबिया जो अमेरिका और नाटो समर्थित विद्रोह और तख्तापलट में गद्दाफी के मारे जाने के बाद पिछले एक दशक से गृहयुद्ध, हिंसा और तबाही के दुष्चक्र में फंसा हुआ है और सुर्ख़ियों से बाहर है.  

मुझे याद है उस दौर में की लोकप्रिय पत्रिकाओं- धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान और दिनमान में अरब दुनिया के दो नेताओं की कहानियां सबसे ज्यादा छपती थीं. वे दो नेता थे- लीबिया के कर्नल मुअम्मर गद्दाफी और इराक के सद्दाम हुसैन. दोनों ने बंदूक के बल पर लम्बे समय तक राज किया, विरोध को कुचला, लोकतंत्र और मानवाधिकारों की परवाह नहीं की. लेकिन दोनों ने अपने देशों में मूलतः कबीलाई समाजों में राजनीतिक स्थिरता और कई प्रगतिशील सुधारों को भी आगे बढ़ाया.

उन्हें शीत युद्ध का फायदा मिला. इस दौर में वे कभी मास्को के नजदीक चले जाते थे और कभी वाशिंगटन के और इस तरह लम्बे समय तक सत्ता में टिके रहे. लेकिन वे हमेशा वाशिंगटन की आँखों में खटकते रहे. अमेरिका और उसकी तेल कंपनियों ने यह कभी स्वीकार नहीं किया कि गद्दाफी और सद्दाम हुसैन ने तेल उद्योग का राष्ट्रीयकरण करके उसका नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया था. तेल उद्योग के राष्ट्रीयकरण से ही इन दोनों देशों में और काफी हद तक आम नागरिकों की जिंदगी में समृद्धि आई. 

लेकिन सोवियत संघ के ढहने के साथ ही सद्दाम हुसैन के साथ गद्दाफी भी अमेरिका के निशाने पर आ गए. पहले सद्दाम हुसैन और फिर 2011 में गद्दाफी भी अमेरिकी विदेश नीति के “सत्ता बदलाव” (रेजीम चेंज) और “मानवीय हस्तक्षेप” (ह्यूमेनटेरियन इंटरवेंशन) की डाक्ट्रिन के शिकार हो गए.

तानाशाहों का जैसे अंत होता है, वैसे ही सद्दाम हुसैन और गद्दाफी का भी हुआ. यहाँ तक तो कहानी सबको मालूम है.

कर्नल मुअम्मर गद्दाफी (सौजन्य: विकीपीडिया)

लेकिन अमेरिका और नाटो ने रेजीम चेंज के नामपर जो और जैसे किया, उसका नतीजा ये दोनों देश आज भी भुगत रहे हैं. हालात लगातार बद से बदतर हुए हैं. सत्ता बदलाव के बाद से ही इराक की तरह लीबिया भी जबरदस्त राजनीतिक अस्थिरता, प्रशासनिक अराजकता, गृहयुद्ध, हिंसा और आर्थिक तबाही की मार झेल रहा है. लीबिया में पिछले साल तक दो सरकारें थीं और वे आपस में लड़ और एक-दूसरे का खून बहा रहीं थीं.

बीते साल सीजफायर के बाद एक यूनिटी सरकार बनी है और देश में राष्ट्रपति चुनाव होने जा रहे हैं. क्या इन चुनावों लीबिया में शांति और राजनीतिक स्थिरता वापस लौटेगी? क्या देश एकजुट हो सकेगा और हिंसा रुकेगी?

उम्मीदवारों को देखकर नहीं लगता. इन चुनावों में गद्दाफी के एक बेटे सैफ अल-इस्लाम गद्दाफी भी उम्मीदवार हैं जो मानवता के खिलाफ अपराध के मामले में अंतर्राष्ट्रीय अपराध न्यायालय (आईसीजे) में वांछित हैं. दूसरे उम्मीदवार सेना के बागी और युद्ध सरदार (वारलार्ड) खलीफा हेफ्तार हैं जिनकी पूर्वी लीबिया में समानांतर सरकार चलती रही है और जिनपर राजधानी त्रिपोली और लीबिया की सत्ता पर कब्जे के लिए युद्ध में सैकड़ों लोगों का खून बहाने का आरोप हैं.

तीसरे उम्मीदवार अंतरिम प्रधानमंत्री अब्दुल-हामिद बेईबाह हैं जिन्होंने पहले राष्ट्रपति चुनाव न लड़ने की घोषणा की थी. इन तीन उम्मीदवारों के अलावा भी कई उम्मीदवार मैदान में हैं. लेकिन ऐसा लगता है कि मुकाबला इन तीन के बीच ही होगा. तीनों के अपने भौगोलिक प्रभाव क्षेत्र हैं. गद्दाफी का देश के दक्षिणी, हेफ्तार का पूर्वी और बेईबाह का उत्तर में असर है.

कहा जा रहा है कि इन तीन में से कोई जीते लेकिन उससे हालात बेहतर होनेवाले नहीं हैं. उलटे आशंका यह है कि इस चुनाव से पहले से बनी फाल्टलाइंस और गहरी और भड़क सकती हैं. टकराव और खून-खराबा बढ़ सकता है.  

कहना मुश्किल है कि लीबिया को नए साल में क्या मिलेगा?                        

दक्षिण अमेरिका में एक और कास्त्रो: हांडूरस की सियोमारा कास्त्रो

कभी-कभी वक्त को पलटने में देर हो सकती है. लेकिन थोड़ा जीवट, थोड़ा साहस, थोड़ा धैर्य और अपने सपनों में भरोसा हो तो वक्त की धारा को देर से सही, पलटा जा सकता है.

और दक्षिण अमेरिका के हांडूरस में भी क्या वक्त पलटा है! वामपंथी लिबरे (लिबर्टी एंड रीफाउन्डेशन) पार्टी की सियोमारा कास्त्रो के राजनीतिक जीवट, साहस और संघर्षों ने वक्त को पलट दिया है. राजधानी टेगूसीगाल्पाह की फिज़ा में राजनीतिक बदलाव की बयार बह रही है और सड़कों पर बदलाव के नारे गूंज रहे हैं.     

हांडूरस में इस सप्ताह हुए आम चुनावों में सियोमारा कास्त्रो नई राष्ट्रपति चुनी गईं हैं. उन्होंने वक्त को पलट दिया है और अपने पति और हांडूरस के राष्ट्रपति रह चुके मैन्युएल ज़ेलाया के उस अपमान का बदला ले लिया है जब उन्हें 2009 में उनके कार्यकाल के बीच में अमेरिका समर्थित तख्तापलट में हटा दिया गया था और देश छोड़ने को मजबूर किया गया था.  

कास्त्रो (सौजन्य: सीजीटीएन)

ज़ेलाया के तख्तापलट के खिलाफ संघर्षों की अगुवाई सियोमारा कास्त्रो ने की थी. इसी जनांदोलन से लिबरे पार्टी निकली है. वे हांडूरस की पहली महिला राष्ट्रपति होंगी. उन्होंने सत्तारूढ़ दक्षिणपंथी नेशनल पार्टी के नासरी अस्फुरा को हराया है.

क्यूबा की क्रांति के लिजेंड्री वामपंथी नेता फिदेल कास्त्रो और उनके छोटे भाई राउल कास्त्रो के बाद दक्षिणी अमेरिकी राजनीति में वे तीसरी कास्त्रो होंगी जो संयुक्त राज्य अमेरिका की नापसंदगी के बावजूद अपने देश की राष्ट्रपति बनने जा रही हैं.

सियोमारा 2012 में भी राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ चुकी हैं लेकिन हार गईं थीं. 2017 के राष्ट्रपति चुनावों में लिबरे पार्टी और इनोवेशन एंड यूनिटी पार्टी के बीच गठबंधन के कारण साल्वाडोर नसरल्ला को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया गया और वे उपराष्ट्रपति पद की उम्मीदवार थीं. इस बार साल्वाडोर नसरल्ला उनके उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार थे.   

बारह साल का समय लगा लेकिन देखिए कि हांडूरस में ज़ेलाया-कास्त्रो परिवार के साथ वाम राजनीति के लिए वक्त कैसे पलटा है. लेकिन हांडूरस में सियोमारा कास्त्रो और वामपंथी सरकार के लिए आगे का रास्ता इतना आसान नहीं है. अमेरिका नई सरकार को आसानी से सफल नहीं होने देगा. देश के अन्दर ड्रग-कोकीन माफियाओं का नेटवर्क और राजनीतिक पार्टियों और प्रशासन में उनकी लाबी बहुत मजबूत है.

इसकी ताकत का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि मौजूदा राष्ट्रपति हुआन ओरलांडो अर्नान्देज़ के भाई हुआन अंतोनियो अर्नान्देज़ को 185 टन कोकीन तस्करी के मामले में अमेरिका में गिरफ्तार किया गया और कोर्ट ने उसे 30 साल की सजा दी है और साथ ही 15.8 करोड़ डालर का जुर्माना भी लगाया है. आरोप हैं कि खुद राष्ट्रपति भी ड्रग-कोकीन के इस कारोबार में शामिल रहे हैं. उन्होंने अपने भाई को बचाने की पूरी कोशिश की और अमेरिका में लाबीइंग के लिए 5 लाख डालर खर्च करके एक कंपनी की सेवाएँ भी ली थीं.

हालाँकि दक्षिण अमेरिका में दशकों तक अमेरिका ने वामपंथी सरकारों को रोकने और उनका तख्तापलट करने के लिए दक्षिणपंथी-सैन्य-तानाशाह सरकारों को खड़ा किया और उनके भ्रष्टाचार, लूट और संगठित ड्रग ट्रैफिकिंग को नज़रंदाज़ किया या कई मामलों में बढ़ावा दिया, उसका एक बड़ा उदाहरण हांडूरस की मौजूदा सरकार और उसके राष्ट्रपति भी हैं. न्यूयार्कर में छपी यह रिपोर्ट इस ओर इशारा करती है.

मुझे जेरेमी रेनर अभिनीत फिल्म ‘किल द मेसेंजर’ (2014) की याद भी आ रही है जो पत्रकार गैरी वेब्ब के वास्तविक कहानी पर आधारित है और जिसमें यह दिखाया गया है कि कैसे अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी- सीआइए ने निकारागुआ में कोंट्रा विद्रोहियों के लिए धन जुटाने के वास्ते खुद अमेरिका में कोकीन की तस्करी में मदद की थी. दक्षिण अमेरिका के कई देशों में संगठित ड्रग-कोकीन तस्कर माफिया और अपराधी गिरोहों की कहानी नई नहीं है.   

पत्रकार गैरी वेब्ब ने दक्षिण अमेरिका में ड्रग-कोकीन तस्करी में शामिल गिरोहों को अमेरिकी प्रशासन खासकर सीआइए की मदद और संरक्षण का खुलासा किया था. हालाँकि गैरी वेब्ब की खोजी रिपोर्टिंग को लेकर अमेरिका की मुख्यधारा की न्यूज मीडिया में काफी विवाद है जिसमें एक तरफ वाशिंगटन पोस्ट और न्यूयार्क टाइम्स जैसे अख़बार हैं जो वेब्ब की रिपोर्टिंग के तौर-तरीकों में कई सवाल उठाते हैं वहीँ इंटरसेप्ट जैसी डिजिटल न्यूज प्लेटफार्म हैं जो वेब्ब की रिपोर्टिंग को सही ठहराते हैं और मुख्यधारा के इन अख़बारों पर सीआइए को बचाने का आरोप लगते हैं.                     

बहरहाल, हांडूरस में नई सरकार से लोगों खासकर गरीबों को बहुत उम्मीदें और अपेक्षाएं हैं. हांडूरस दक्षिण अमेरिका के सबसे गरीब देशों में है जहाँ की बड़ी आबादी गरीब है और आर्थिक गैर-बराबरी चरम पर है. देश से बड़े पैमाने पर पलायन हो रहा है. लोग बेहतर जीवन की उम्मीद में वहां से भागकर मेक्सिको जा रहे हैं.

कास्त्रो को एक ओर ड्रग-कोकीन तस्करों और माफियाओं के नेटवर्क और उनके राजनीतिक दलों-सेना-नौकरशाही में मौजूद समर्थकों से लड़ना है, खुद को हत्यारों और तख्तापलट से बचाना है और लोगों की उम्मीदें भी पूरी करनी हैं.           

मर्कल की बातें

“एक-दूसरे पर भरोसा करिए”- यही कहा सोलह साल तक सत्ता में रहने के बाद विदा हो रही जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्कल ने. वे बीते गुरुवार को उस औपचारिक सैन्य परेड में दी गई विदाई के मौके पर बोल रही थीं. वे अगले सप्ताह नए चांसलर ओलाफ़ शोल्ज़ के नेतृत्व में बनने जा रही ट्रैफिक लाईट गठबंधन सरकार को सत्ता सौंप देंगी.

इस विदाई भाषण में मर्कल ने कई मार्के की बातें कहीं. उन्होंने कहा कि, “महामारी के इन दो सालों ने दिखाया है कि राजनीति, विज्ञान और सामाजिक विमर्शों में भरोसा कितना महत्वपूर्ण है और यह भी कि यह कितना क्षणभंगुर हो सकता है.” मर्कल ने कहा कि लोकतंत्र विश्वास और एकजुटता पर टिका है जिसमें तथ्यों पर भरोसा शामिल है. उन्होंने कहा कि, “जहाँ भी वैज्ञानिक तथ्यों और समझ को झुठलाने की कोशिश हो और कांस्पिरेसी थियरी और नफ़रत को फ़ैलाने की कोशिश हो, हमें उसका प्रतिरोध करना ही होगा.”

एंजेला मर्कल (सौजन्य: विकीपीडिया)

मर्कल ने कहा कि, “हमारा लोकतंत्र इस तथ्य पर भी टिका हुआ है कि जहाँ हिंसा और नफ़रत को कुछ खास हितों को आगे बढ़ाने के वैधानिक माध्यम की तरह देखा जाए, वहां एक लोकतंत्र समर्थक के रूप में हमें उसे सहन नहीं करना चाहिए.”

आप सोच रहे होंगे कि मर्कल को इतने विस्तार से क्यों उद्धृत कर रहा हूँ? जर्मनी और हिटलर-नाज़ीवाद/फासीवाद के रिश्ते और इतिहास को सब जानते हैं. उस दौर में भी हिटलर के नेतृत्व में नाजियों ने जर्मन समाज की एकता को तोड़ा. एक-दूसरे के खिलाफ़ शक और नफरत पैदा किया और आख़िरकार जर्मनों को यहूदियों के खिलाफ़ खड़ा कर दिया. इस अंधी नफ़रत और हिंसा के बीच न सिर्फ लाखों बेगुनाह लोग मारे गए बल्कि लोकतंत्र को खत्म करके तानाशाह हिटलर ने जर्मनी को विश्वयुद्ध में झोंक दिया जिसने जर्मनी और यूरोप को बर्बाद कर दिया.

हालाँकि जर्मनी में इस बुरे दौर कोई याद नहीं करना चाहता और शायद मर्कल भी उस दौर के रेफरेंस में नहीं बल्कि हालिया वर्षों के सन्दर्भ में ये बातें नहीं कह रही थीं. लेकिन उनकी बातों से नाज़ीवाद/फ़ासीवाद की याद हो आना स्वाभाविक है.

असल में, जर्मनी सहित यूरोप के ज्यादातर देशों में समाजों में राजनीतिक-वैचारिक के साथ-साथ नस्ली-धार्मिक ध्रुवीकरण तीखा हो रहा है. रेस, धर्म, अल्पसंख्यकों और माइग्रेशन को लेकर फेक न्यूज, प्रोपेगंडा और कान्सिपिरेसी थियरी में आँख मूंदकर भरोसा करनेवालों की संख्या बढ़ रही है. नफ़रत और हिंसा बढ़ रही है. विज्ञान और तर्क विरोधी सोच की स्वीकार्यता बढ़ी है. धुर दक्षिणपंथी-नस्लवादी राजनीतिक समूहों और पार्टियों और पापुलिस्ट नेताओं की ताकत बढ़ रही है.

लब्बोलुआब यह कि यूरोप के कई देशों में ऐसे सामाजिक-राजनीतिक हालात बनते जा रहे हैं जहाँ और फिसले तो फासीवादी/नाजीवादी गड्ढे में गिरने से रोकना मुश्किल हो जाएगा.

मर्कल की चेतावनी सही समय पर आई है. यह और बात है कि जर्मनी और यूरोप को यहाँ तक लाने में उनके 16 सालों और उनकी सरकार की नीतियों की भी भूमिका है.     

यूक्रेन पर रूस और अमेरिका आमने-सामने          

कभी सोवियत संघ का हिस्सा रहे यूक्रेन को लेकर रूस और अमेरिका आमने-सामने हैं. एक ओर रूस और यूक्रेन के बीच तनाव बढ़ता जा रहा है और दूसरी ओर इस झगड़े में कूद पड़े अमेरिका और नाटो के उसके यूरोपीय साथियों और रूस के बीच तकरार बढ़ती जा रही है. इस तकरार और बढ़ते तनाव के बीच कई विश्लेषक तीसरे विश्वयुद्ध की आशंकाएं जाहिर करने लगे हैं.

अमेरिका का आरोप है कि रूस, यूक्रेन पर हमले की तैयारी कर रहा है. अमेरिकी मीडिया में ख़ुफ़िया सूत्रों के हवाले से छपी ख़बरों में कहा जा रहा है कि रूस ने यूक्रेन की सीमा पर 1.75 लाख फौज़ी और लड़ाकू टैंक/तोप तैनात कर लिया है और वह अगले साल के शुरू में यूक्रेन पर हमला कर सकता है.

बाईडन और पुतिन ( सौजन्य: याहून्यूज)

दूसरी ओर, रूस का आरोप है कि अमेरिकी शह पर यूक्रेन न सिर्फ रूसी सीमा पर अपनी फौजें तैनात कर रहा है बल्कि अपने सीमावर्ती क्षेत्रों खासकर दोनेत्स्क और लुहांस्क में रूसी मूल यूक्रेनी अलगाववादी बागियों पर हमले कर रहा है जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता है.

लेकिन यूक्रेन के मुद्दे पर रूस और अमेरिका के बीच टकराव का असली मुद्दा यह है कि अमेरिका, यूक्रेन को नाटो का सदस्य बनाना चाहता है जिससे उसे वहां न सिर्फ सैनिक अड्डे बनाने का मौका मिल जाएगा बल्कि वह रूस को सैनिक रूप से घेरने में भी कामयाब हो सकता है.

रूस इसे किसी कीमत पर स्वीकार करने को तैयार नहीं है. उसके लिए यूक्रेन एक ऐसी लक्ष्मण रेखा (रेड लाइन) है जहाँ वह अमेरिका और नाटो की मौजूदगी नहीं देखना चाहता है. उसके मुताबिक, यह उसकी सुरक्षा और इस इलाके में शांति के लिए जरूरी है कि नाटो और अमेरिका यूक्रेन से दूर रहें. रूस का तर्क है कि यूक्रेन उसका पड़ोसी है और वहां खासकर सीमावर्ती इलाकों में लाखों रूसी मूल के लोग रहते हैं.

रूस का यह भी कहना है कि 2014 और 15 में यूक्रेन के मुद्दे पर रूस और अमेरिका/नाटो के बीच मिन्स्क में बनी सहमति की भावना के भी खिलाफ है. लेकिन जो बाईडन प्रशासन अड़ा हुआ है. उसका कहना है कि यूक्रेन की इच्छा का सम्मान होना चाहिए जो खुद नाटो का सदस्य बनना चाहता है. बाईडन ने साफ़ कह दिया है कि वे किसी की भी बनाई लक्ष्मण रेखा (रेड लाइन) को नहीं मानते हैं.

इस कारण रूस और अमेरिका के बीच टकराव बढ़ता जा रहा है. शीत युद्ध की भाषा और जुमले लौट आये हैं. रूस ने अपने इरादे 2014 में दिखा दिए हैं जब उसने यूक्रेन से क्रीमिया को छीन लिया था. इसकी एक बड़ी वजह यह भी थी कि क्रीमिया में रूसी मूल के लोगों की संख्या काफी थी. रूस यूक्रेन के अन्दर दोनेत्स्क और लुहांस्क में भी रूसी मूल के अलगाववादियों और उनकी स्वायत्तता के आन्दोलन का खुलकर समर्थन कर रहा है.

इस सप्ताह मंगलवार को रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाईडन के बीच एक शिखर वर्चुअल बैठक होने जा रही है जिसमें यूक्रेन का मुद्दा सबसे महत्वपूर्ण रहनेवाला है. रूसी राष्ट्रपति के प्रवक्ता दिमित्री पेस्कोफ़ ने तंज करते हुए कहा है कि, “हमारे (रूस-अमेरिका) के द्विपक्षीय संबंधों के अस्तबल में इतनी गन्दगी जमा हो गई है कि उसे कई घंटों की वार्ताएं भी साफ़ नहीं कर सकती हैं.”

सवाल यह है कि इस लड़ाई में पहले पलकें कौन झपकायेगा?

या, दुनिया सचमुच, विश्वयुद्ध की ओर बढ़ रही है.  

इस सप्ताह बस इतना ही. अगले शनिवार या रविवार को इस सप्ताह की और ख़बरों और वैश्विक ट्रेंड्स के साथ लौटेंगे.

समय निकालने और पढ़ने के लिए आपका शुक्रिया. फीडबैक भेजते रहिये.

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आनंद प्रधान

देश-समाज की राजनीति, अर्थतंत्र और मीडिया का अध्येता और टिप्पणीकार