
रूस-यूक्रेन युद्ध जितना लम्बा खींच रहा है, मानवीय तबाही उतनी ही ज्यादा बढ़ रही है और उसके हाथ से निकलने के खतरे उतने ही बढ़ते जा रहे हैं . अमेरिका , रूस और यूक्रेन तीनों इस युद्ध में दाँव ऊँचे करते जा रहे हैं जिसके कारण समाधान का स्पेस लगातार कम और मुश्किल होता जा रहा है.
यूक्रेन संकट की वजहें चाहे जो हों लेकिन युद्ध का चौथे सप्ताह में भी जारी रहना वैश्विक शांति और अर्थव्यवस्था के लिए खतरे की घंटी है. इसके बावजूद कहना मुश्किल है कि यह युद्ध कब और कैसे खत्म होगा? जिस तरह की परिस्थितियां बन रही हैं, उससे साफ़ है कि हालात दिन पर दिन बिगड़ रहे हैं. यह युद्ध जितना लम्बा खींचेगा, उसकी विभीषिका और मानवीय त्रासदी उतनी ही गंभीर होती जायेगी. यूक्रेन और रूस के साथ-साथ दुनिया को भी उसकी उतनी ही ज्यादा कीमत चुकानी पड़ेगी.
यह रूस को भी पता है कि वह इस युद्ध को राजनीतिक-आर्थिक और सैन्य कारणों से कई महीनों तक चलाने की स्थिति में नहीं है. चार सप्ताहों में ही उसका दम फूल रहा है. लेकिन मुश्किल यह है कि राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन इतनी आसानी से पीछे हटनेवाले नहीं हैं. इस युद्ध में दाँव इतने ऊँचे कर देने के बाद उनके पास बहुत विकल्प भी नहीं रह गए हैं.
हालाँकि इसका अंदेशा नहीं के बराबर है लेकिन युद्ध लम्बा चलने की स्थिति में किसी भी पक्ष की ओर से उकसावे की कार्रवाई या किसी मिसाइल के बहकने और नाटो के सदस्य देश में गिरने जैसी किसी सैन्य दुर्घटना से इस युद्ध के हाथ से निकलने और उसमें नाटो के सक्रिय रूप से शामिल होने की स्थिति में उसके परमाणविक युद्ध में बदलने के खतरे से भी इनकार नहीं किया जा सकता है.
यह भी साफ़ है कि यूक्रेन सैन्य ताकत के आधार पर अकेले लम्बे अरसे तक रूसी फौजों को आगे बढ़ने और अपने बड़े शहरों पर कब्ज़ा करने से रोकने की स्थिति में नहीं है. लेकिन रूसी फ़ौज के यूक्रेनी शहरों में घुसने और वहां छापामार लड़ाई और नागरिक प्रतिरोध की स्थिति में सबसे ज्यादा खून निर्दोषों का बहेगा.
यह रूस को भी पता है कि यूक्रेन के कुछ शहरों यहाँ तक कि राजधानी कीव पर भी सैनिक ताकत के बल पर कब्ज़ा करना एक बात है लेकिन यूक्रेनी नागरिकों का विश्वास जीतना और वहां रूस समर्थक सरकार बैठाना और चलाना बिलकुल दूसरी बात है. नेपोलियन ने बहुत पहले कहा था कि किसी भी युद्ध में तीन चौथाई नैतिकता और एक चौथाई शारीरिक/सैन्य ताकत की भूमिका होती है.

पुतिन भले ही यह दावा करें कि रूसी हमले का मकसद यूक्रेन का “असैनिकीकरण” और “नाज़ीवाद का सफाया” करना है या यूक्रेन के रूसी बहुल आबादी वाले दोनेत्स्क और लुगान्स्क में यूक्रेनी सेना या नव नाजीवादी समूहों द्वारा जारी कत्लेआम को रोकना है लेकिन सच यह है कि रूस के लिए इस हमले को नैतिक दृष्टि से उचित या न्याययोचित ठहरा पाना मुश्किल हो रहा है. नाटो के आक्रामक विस्तार, रूस से किए गए वायदों को तोड़ना और देश की सुरक्षा को बढ़ते खतरे आदि को लेकर रूस की शिकायतें और चिंताएं सही हो सकती हैं लेकिन यह यूक्रेन पर हमले को जायज ठहराने के लिए पर्याप्त नहीं हैं.
उलटे इस युद्ध ने नाटो के विस्तार और इरादों को लेकर रूस की आपत्तियों, शिकायतों और चिंताओं को हल्का कर दिया है और नाटो के विस्तार को तार्किक वजह दे दी है. आश्चर्य नहीं कि व्यापक जन-धारणा (परसेप्शन) में रूस इस युद्ध को पहले ही हार चुका है क्योंकि इस हमले के बाद रूस एक विस्तारवादी देश के रूप में सामने आया है जबकि नाटो खुद को यूक्रेन की आज़ादी, संप्रभुता और लोकतंत्र के रक्षक के रूप में पेश करने में कामयाब दिख रहा है. युद्ध-भूमि से आ रही तबाही, मौतों और पलायन की दर्दनाक तस्वीरें और वीडियो के बीच रूस के लिए सैनिक और खासकर नैतिक-मनोवैज्ञानिक रूप से इस युद्ध को जीतना दिन पर दिन मुश्किल होता जा रहा है.
पुतिन को भी अंदाज़ा हो चुका है कि वे यूक्रेन में फंस गए हैं जहाँ से मौजूदा परिस्थितियों में जीत कर और वहां अपनी पसंद की सरकार बैठाकर उसे रिमोट कंट्रोल से चलाने के बजाय एक चेहरा बचाऊ समझौते के जरिये यूक्रेन से निकलना ज्यादा बेहतर विकल्प है. पुतिन को अफ़ग़ानिस्तान का रूसी अनुभव जरूर याद होगा. उन्हें यह भी पता है कि यह युद्ध जितना लम्बा खींचेगा, रूस के लिए हालात उतने ही ख़राब होते जायेंगे. अमेरिका और नाटो कोई कसर नहीं छोड़ेंगे जिससे रूस को यूक्रेन के ट्रैप में लम्बा फंसाकर आर्थिक-सैन्य रूप से कमजोर और अलग-थलग किया जा सके.
दूसरी ओर, यूक्रेन को भी पता है कि युद्ध जारी रहने की स्थिति में उसका भारी नुकसान है. राष्ट्रपति व्लादिमीर जेलेंस्की जानते हैं कि इस युद्ध में मजबूती से उनके साथ खड़ा जनमत लड़ाई लम्बी खिंचने और जानमाल के बढ़ते नुकसान की स्थिति में कमजोर पड़ने लगेगा. इसलिए जेलेंस्की भी एक सम्मानजनक समझौता चाहते हैं. यही कारण है कि युद्ध जारी रहने के बावजूद रूस और यूक्रेन के बीच शांतिवार्ता के कई दौर हो चुके हैं.

रूस और खासकर पुतिन के लिए चेहरा बचाते हुए बाहर निकलने का रास्ता ऐसा समझौता हो सकता है जिसमें यूक्रेन नाटो में शामिल न होने और स्वीडन और आस्ट्रिया जैसे देशों की तर्ज पर सैन्य रूप से तटस्थ रहने का वायदा करे और बदले में, रूस और पश्चिमी देश यूक्रेन की सुरक्षा की गारंटी लें. जेलेंस्की ने भी ऐसे संकेत दिए हैं कि यूक्रेन, नाटो की सदस्यता का आग्रह छोड़ने के लिए तैयार है. लेकिन जेलेंस्की स्वीडन या आस्ट्रिया जैसी तटस्थता के लिए तैयार नहीं हैं. इसकी वजह यह है कि वे अमेरिका और नाटो देशों के साथ सक्रिय राजनीतिक-आर्थिक-सैन्य संबंध रखने के अपने अधिकार को छोड़ने के लिए राजी नहीं हैं. इसमें बीच का रास्ता यह हो सकता है कि यूक्रेन नाटो का नहीं लेकिन आगे चलकर यूरोपीय संघ का सदस्य बन जाए.
रूस यह भी चाहता है कि यूक्रेन, क्रीमिया पर रूस के अधिकार को स्वीकार करे. यही नहीं, वह यह भी मांग कर रहा है कि यूक्रेन अपने रूसी बहुल इलाकों- डोनेत्स्क और लुगान्स्क की आज़ादी को स्वीकार कर ले. लेकिन यूक्रेन और जेलेंस्की के लिए ये दोनों मांगें मानना मुश्किल है. जेलेंस्की के लिए भौगोलिक अखंडता के साथ समझौता आसान नहीं होगा. इस अर्थ में रूस की ये दोनों मांगे ‘डील ब्रेकर’ हैं. लेकिन इसमें भी बीच का रास्ता यह हो सकता है कि यूक्रेन क्रीमिया पर अपना दावा छोड़ दे लेकिन बदले में रूस क्रीमिया का सैन्यीकरण न करने का वायदा करे. इसी तरह डोनेत्स्क और लुगान्स्क को फिलहाल, यूक्रेन का हिस्सा मानते हुए भी दोनों सेनाओं से मुक्त रखा जाए, प्रशासन स्थानीय नागरिकों के हाथ में हो और आगे चलकर इन इलाकों में जनमतसंग्रह से फैसला हो.
क्या ऐसा कोई समझौता संभव है? रूस और यूक्रेन के कड़े तेवरों को देखते हुए इसकी सम्भावना कम दिखती है लेकिन यह दोनों को पता है कि इसके अलावा कोई रास्ता भी नहीं है. मुश्किल यह है कि यूक्रेन आर्थिक-राजनीतिक-सैन्य संबंधों में अमेरिका, यूरोपीय संघ और नाटो के साथ इतना करीब जा चुका है और उसकी उनपर निर्भरता इतनी बढ़ चुकी है कि वह उनकी सहमति के बिना रूस के साथ समझौता करने की स्थिति में नहीं है. लेकिन क्या अमेरिका और नाटो, रूस को रियायत देने के लिए तैयार हैं? क्या वे पुतिन को एक अनुकूल समझौते के साथ बचकर निकलने देंगे?

अमेरिका और नाटो को लगता है कि रूस, यूक्रेन में उनके बिछाए जाल में फंस चुका है और यह उनके लिए रूस और खासकर पुतिन को राजनीतिक रूप से कमजोर करने और रूस की वैश्विक शक्ति के रूप में फिर से उभरने की महत्त्वाकांक्षाओं को दबा देने का अच्छा मौका है. इसलिए यूक्रेन में जैसे-जैसे युद्ध लम्बा खींच रहा है, वैसे-वैसे अमेरिका और नाटो देश भी दांव और ऊँचे करते जा रहे हैं. वे पुतिन को इस चक्रव्यूह से आसानी से निकलने नहीं देना चाहते हैं. यही कारण है कि वे यूक्रेन को खुलकर हथियारों और दूसरे संसाधनों की आपूर्ति बढ़ा रहे हैं, रूस पर आयद आर्थिक-व्यापारिक प्रतिबंधों को और कड़ा कर रहे हैं और रूस के समर्थक या उससे सहानुभूति रखनेवाले देशों पर उससे संबंध खत्म करने का दबाव बढ़ा रहे हैं.
हालाँकि अमेरिका और नाटो ने ज़ेलेंस्की की यूक्रेन को “नो फ्लाई ज़ोन” घोषित करने की मांग को स्वीकार नहीं किया है क्योंकि इसका अर्थ रूस के साथ सीधे-सीधे युद्ध में उतरना है. अमेरिका, फिलहाल, इससे बचना चाहता है लेकिन जिस तरह से इस मांग को लेकर सुनियोजित शोर-शराबा बढ़ रहा है, उससे लगता है कि नाटो यूक्रेन में सक्रिय और आक्रामक लेकिन दिखाने को परोक्ष हस्तक्षेप की जमीन तैयार कर रहा है.
दूसरी ओर, अन्दर-बाहर से घिरे पुतिन की बेचैनी, आक्रामकता और पश्चिमी देशों के खिलाफ रेटार्रिक का सुर तेज होता जा रहा है. नतीजा, यूक्रेन में रूसी फ़ौज की आक्रामकता भी दिन पर दिन बढ़ रही है और उसके साथ ही नागरिकों की मौतें, तबाही और पलायन भी बढ़ रहा है. इससे न सिर्फ रूस-यूक्रेन के बीच किसी सम्मानजनक समझौते की गुंजाइश कम होती जा रही है बल्कि इस युद्ध के उसके मुख्य किरदारों के हाथ से निकलने और उसके व्यापक दायरे में फैलने का खतरा भी बढ़ता जा रहा है. आश्चर्य नहीं कि इन दिनों तीसरे विश्वयुद्ध से लेकर परमाणविक युद्ध की चर्चाएँ फिर शुरू हो गईं हैं.
क्या दुनिया इसके लिए तैयार है?
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