प्राइवेट अस्पतालों की लूट और मनमानी पर पर्दा क्यों पड़ा रहता है?

यह एक ऐसी कड़वी सच्चाई है जो करोड़ों लोगों के जीवन और स्वास्थ्य को सीधे प्रभावित करती है. हर साल लाखों-लाख लोग इसकी मार से टूट जाते हैं. कोरोना महामारी ने इसे और उघाड़ कर रख दिया है.

लेकिन हैरानी की बात यह है कि इसके बारे में सार्वजनिक बहसों में कभी चर्चा नहीं होती है. संसद में हंगामा नहीं होता. चैनल चीखते-चिल्लाते नहीं हैं. ट्विटर और फेसबुक पर इसे कोई ट्रेंड नहीं कराता.

मुद्दा है- बीमारियों के इलाज पर बढ़ता खर्च...खासकर गंभीर बीमारियों और प्राइवेट अस्पतालों/ नर्सिंग होम्स में भर्ती होने की स्थिति में इलाज पर होनेवाले खर्च में बेतहाशा बढ़ोत्तरी का. इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दें तो ऐसा लगता है कि जैसे इलाज के नामपर लूट मची हुई है जिसमें प्राइवेट अस्पताल ईमानदारी से मरीजों के इलाज के बजाय उन्हें अधिक से अधिक दूहने में लगे रहते हैं.

हालाँकि इस लूट की बहुत कम कहानियां बाहर आ पाती हैं लेकिन कभी-कभार अख़बारों या सोशल मीडिया में ऐसी ख़बरें आ जाती हैं जिसमें कुछ दिनों के इलाज के लिए लाखों रूपये के बिल या इलाज में लापरवाही से मौत और उसके बाद भी लाखों रूपये के बिल या मरीज की मौत के बाद भी लाखों रूपये के बिल चुकाए बिना शव न देने जैसी रिपोर्टें होती हैं और जिनसे प्राइवेट अस्पतालों की अमानवीयता और लूट की हकीकत सामने आती है.

इलाज के नामपर प्राइवेट अस्पतालों की यह लूट खुद में एक महामारी बन चुकी है.

आश्चर्य नहीं कि कोरोना महामारी के दौरान ऐसी अनेकों रिपोर्टें आईं जिनमें प्राइवेट अस्पतालों में कोरोना के इलाज के नामपर हो रही खुली लूट के दहलानेवाले किस्से उजागर हुए हैं. हैरानी की बात यह है कि कोरोना का कोई निश्चित इलाज नहीं है, सीमित दवाएं हैं और अस्पतालों में भर्ती होनेवाले मरीजों की देखभाल, कुछ दवाएं और जरूरत पड़ने पर आक्सीजन मुहैया कराना ही इलाज है लेकिन अगर आप अस्पताल में सात-आठ से दस दिन तक रह गए तो कम से कम पांच-सात लाख का बिल चुकाने के लिए तैयार रहिए.

यह हाल तब है जब कई राज्य सरकारों ने प्राइवेट अस्पतालों में कोरोना के इलाज के लिए आई.सी.यू और नान आई.सी.यू वार्ड में भर्ती होने पर प्रतिदिन का अधिकतम रेट तय कर रखा है जिसमें बिस्तर और दवाइयों/जांच/डाक्टर की फ़ीस आदि का खर्च शामिल है. आपने भी अख़बारों में राज्य सरकारों की ऐसी घोषणाएं पढ़ी होंगी.

लेकिन अगर यह सच है तो फिर प्राइवेट अस्पतालों से ऐसी रिपोर्टें क्यों आती रहती हैं कि कुछ दिनों के इलाज के लिए मरीजों को लाखों का बिल थमा दिया गया? आप गूगल कीजिए- Overcharging and excess bill by private hospitals in India और इसके नतीजे देखिये. अस्पतालों के मनमाने बिल की सैकड़ों कहानियां मिल जाएंगी.

उदाहरण के लिए द वायर में छपी कवलजीत सिंह की इस तकलीफदेह आपबीती को जरूर पढ़िए जिसमें उन्होंने विस्तार से बताया है कि बड़े प्राइवेट अस्पतालों में कोरोना के इलाज के नामपर किस तरह से मरीजों और उनके परिजनों का खून चूसा जा रहा है. उन्होंने बताया है कि कैसे उनकी पत्नी की मौत हुई और उसके बाद अस्पताल ने उन्हें 19 लाख रूपये का बिल थमा दिया. यह रिपोर्ट बताती है कि कैसे सरकारी निर्देशों में जान-बूझकर छिद्र छोड़े जाते हैं, कैसे उन निर्देशों का उल्लंघन होता है, और फिर भी सरकार और अधिकारी आँखें बंद किए रहते हैं.

लेकिन यह सिर्फ 'टिप आफ आइसबर्ग' है.

लाखों गरीब, निम्न और मध्यवर्गीय लोग इसके बारे में रिपोर्ट नहीं करते क्योंकि उनकी कहीं सुनवाई नहीं होती है. ज्यादातर गरीब और निम्न मध्यवर्गीय मरीजों और उनके परिजनों को इन अस्पतालों के बिल को समझने और उसपर ऊँगली उठाने की समझ भी नहीं होती है. उनके अन्दर प्राइवेट अस्पतालों की ऊँची पहुँच और उनके बाउंसर्स और सेक्यूरिटी गार्ड्स से लड़ने की क्षमता नहीं होती है. वे मजबूरी में कर्ज लेकर और सारी जमा पूंजी निकालकर अस्पतालों के मनमाने बिल की भरपाई करते हैं.

आश्चर्य नहीं कि प्राइवेट अस्पतालों में इलाज के बाद हर साल लाखों मरीज कर्ज में डूब जाते हैं, जीवन भर की जमा-पूंजी गँवा बैठते हैं और लाखों फिर से गरीबी रेखा के नीचे पहुँच जाते हैं.

टाइम्स आफ इंडिया में 21 जून को छपी एक रिपोर्ट विस्तार से बताती है कि भारत दुनिया के उन चुनिन्दा देशों में है जहाँ बीमारी के इलाज पर होनेवाले खर्च का बड़ा हिस्सा- लगभग दो तिहाई लोगों को खुद उठाना पड़ता है. इसका अर्थ यह है कि औसतन एक आम आदमी को बीमार होने पर अपने इलाज पर होनेवाले हर 100 रूपये के खर्च में से 65 रूपये खुद भरने पड़ते हैं. यह अखिल भारतीय औसत है और इसमें सरकारी अस्पतालों में होनेवाले इलाज का खर्च भी शामिल है.

लेकिन कई बार आंकड़ों से पूरी सच्चाई का पता नहीं चलता है. पहली बात तो यह है कि बिहार जैसे कई बड़े और गरीब राज्यों में मरीजों को अपने इलाज का 99 फीसदी अपने पाकेट से भरना पड़ता है. यही नहीं, शहरी इलाकों की तुलना में उत्तर भारत के ज्यादातर ग्रामीण इलाकों में लोगों को इलाज के खर्च का 90 फीसदी से ज्यादा अपने पाकेट से देना पड़ता है.

दूसरे, प्राइवेट अस्पताल में इलाज का पूरा खर्च यानी 100 फीसदी मरीजों की जेब से जाता है. यहाँ तक कि सरकारी जमीन और दूसरी सुविधाओं के साथ बने उन प्राइवेट अस्पतालों में भी आम लोगों को अपने इलाज का पूरा खर्च भरना पड़ता है जहाँ कुछ बेड गरीबों की मुफ्त चिकित्सा के लिए अनिवार्य है. लेकिन शायद ही कोई प्राइवेट अस्पताल इसे मानता है.

तीसरे, सरकारी अस्पतालों में इलाज अपेक्षाकृत सस्ता होते हुए भी वहां दवाओं और जांच आदि का खर्च मरीज को उठाना पड़ता है. वहां बहुत भीड़ होने के कारण एडमिट होना भी मुश्किल है. अधिकांश सरकारी अस्पतालों में फ्री दवाओं और जांच की व्यवस्था होते हुए भी अक्सर इस या उस बहाने इसका लाभ लोगों को नहीं मिलता है.

चौथे, देश में ज्यादातर राज्यों में सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था खुद बहुत बीमार, कमजोर, अंडर-फंडेड, सीमित और भ्रष्टाचार/अनियमितताओं की शिकार है. आश्चर्य नहीं कि देश में सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था के एक समानांतर और उससे कहीं बड़ी प्राइवेट हेल्थ-केयर व्यवस्था खड़ी हो गई है जो न सिर्फ महँगी है बल्कि देश की 80 फीसदी आबादी की पहुँच से बाहर है.

इन प्राइवेट अस्पतालों में सब कुछ प्राइवेट है. गोपनीयता की आड़ में मनमाना है. इलाज और जांच से लेकर दवाओं के बारे में मरीजों की जरूरत से ज्यादा अस्पताल के मुनाफे और कमीशन का ध्यान रखा जाता है. मरीज के पास डाक्टर और अस्पताल का कहा मानने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. एक बार वहां फंस जाने के बाद आप उस अस्पताल के रहमोकरम पर हैं.

इसके बावजूद प्राइवेट अस्पतालों, नर्सिंग होम्स और क्लिनिक्स की व्यवस्था लगातार फलफूल रही है. आम लोगों और यहाँ तक कि गरीबों के पास भी उनके पास जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है क्योंकि सरकारी चिकित्सा व्यवस्था खुद मरणासन्न है.

इस मामले में भारत की स्वास्थ्य/चिकित्सा व्यवस्था दुनिया की सबसे अधिक निजीकृत यानी प्राइवेटाइज्ड चिकित्सा व्यवस्थाओं में से एक है जहाँ गरीब से गरीब व्यक्ति को अपने इलाज का खर्च खुद भरना पड़ता है.

इस कारण भारत में बीमार होना और उसका इलाज करा पाना खासकर प्राइवेट अस्पताल में एक तरह की लक्जरी है जिसका खर्च उठा पाना सबके वश की बात नहीं है.

आश्चर्य नहीं कि आज गंभीर बीमारी और उसके इलाज का मतलब आपका कर्ज में डूबना या गरीबी रेखा के नीचे चले जाना है. कई शोध रिपोर्टें हैं जो बताती हैं कि देश के अधिकांश राज्यों में बीमारी का इलाज इतना महंगा है कि उसके कारण अधिकांश परिवार फिर से गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं.

कोरोना महामारी ने इस प्राइवेटाइज्ड चिकित्सा व्यवस्था की सीमाओं, गड़बड़ियों, लूट और अमानवीयता पर से पड़ा पर्दा हटा दिया है. इसे अब और नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता है. इस प्राइवेटाइज्ड चिकित्सा व्यवस्था को नियंत्रित करने के लिए राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर नियामक संस्थाएं गठित करने और प्राइवेट अस्पतालों की नियमित सोशल आडिट जरूरी है.

लेकिन उससे ज्यादा जरूरी है- भारत को तुरंत एक समतामूलक, सस्ती, सक्षम और सर्वसुलभ सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की ओर बढ़ने की जो मुनाफे के लिए नहीं, गरीब से गरीब लोगों को बेहतरीन चिकित्सा सुविधा मुहैया कराने के उद्देश्य के साथ काम करे. इसके लिए देश को सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए जीडीपी का कम से कम 3 से 4 फीसदी खर्च करना होगा.

कोरोना महामारी ने बता दिया है कि एक सक्षम-सस्ती-सुलभ सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के बिना महामारियों से लड़ना मुमकिन नहीं है.

अगर भारत आज़ादी के इतने दशकों बाद भी अपने गरीब और निम्न और मध्यमवर्गीय नागरिकों को सस्ती-सुलभ-सक्षम-विश्वसनीय चिकित्सा सुविधाएँ मुहैया नहीं करा पा रहा है तो यह निश्चित रूप से राष्ट्रीय शर्म, गहरी चिंता और अपनी प्राथमिकताओं पर फिर से सोचने की बात है.

आज़ादी के 75वें साल की ओर बढ़ रहे देश के लिए यह मुद्दा अपने अन्दर झाँकने और आगे की प्राथमिकताओं को फिर से तय करने का विषय होना चाहिए.

क्या ऐसा होगा?

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आनंद प्रधान

देश-समाज की राजनीति, अर्थतंत्र और मीडिया का अध्येता और टिप्पणीकार