क्या चार दिन के सप्ताह के आइडिया का समय आ गया है?

इस महामारी के दौर में जब ज्यादातर लोग घर से काम कर रहे हैं और काम के दिन पांच या छह नहीं बल्कि सात दिन हो गए हैं, उस समय चार दिन के सप्ताह की बात! चौंकिए मत, आपने बिलकुल ठीक सुना. अगर सब कुछ योजना के मुताबिक रहा और सभी शर्तें यानी अगर-मगर के साथ पूरी हो गईं तो संभव है कि देश में अगले कुछ महीनों में चार दिन के वर्किंग और तीन दिन की छुट्टी के सप्ताह के प्रस्ताव अमल में आ जाएँ.   

कुछ महीनों पहले केन्द्रीय श्रम सचिव अपूर्व चन्द्र ने संकेत दिया कि केंद्र सरकार नए लेबर कोड के तहत नियोजकों (इम्प्लायर्स) और कर्मचारियों को यह विकल्प देने पर गंभीरता से विचार कर रही है कि अगर दोनों सहमत हों तो सप्ताह में काम के दिन पांच या छह से घटाकर चार किए जा सकते हैं.

लेकिन ज्यादा खुश होने की जरूरत भी नहीं है. इस प्रस्ताव के साथ एक शर्त जुड़ी हुई है. चार दिन के सप्ताह के लिए आपको हर दिन कुछ और घंटे काम करने होंगे. श्रम एवं रोजगार मंत्रालय के प्रस्ताव के मुताबिक, चार दिन के सप्ताह के लिए आपको हर दिन 12 घंटे यानी पहले की तरह सप्ताह में कुल कम से कम 48 घंटे काम करने की शर्त पूरी करनी होगी. इसके बाद ही आप तीन दिन के सप्ताहांत का आनंद उठा सकते हैं.

लेकिन क्या सप्ताह में काम के दिनों को घटाकर चार दिन करते हुए काम के घंटों में भी कटौती के आइडिया पर विचार करने का समय नहीं आ गया है? मसलन, सप्ताह में कुल 48 घंटे काम के बजाय अगर उसे घटाकर 32 या अधिकतम 36 घंटे कर दिया जाए तो यह कैसा रहेगा? याद रहे कि अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आई.एल.ओ) के श्रम मानकों के तहत एक कामगार/कर्मचारी को सप्ताह में अधिकतम 48 घंटे और प्रतिदिन आठ घंटे से अधिक काम करने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए.

कहने की जरूरत नहीं है कि चार दिन के सप्ताह के लिए हर दिन 12 घंटे काम की शर्त आई.एल.ओ के अंतर्राष्ट्रीय श्रम मानकों का उल्लंघन है, भले ही इसके बाद तीन दिन की छुट्टी मिल रही हो. यह औद्योगिक क्रांति के दौर में 19वीं और 20वीं शताब्दी में श्रमिकों और ट्रेड यूनियनों के लम्बे संघर्ष के बाद मिले उस अधिकार की अवमानना है जिसमें “8 घंटे काम, 8 घंटे मनोरंजन-दिनचर्या और 8 घंटे की नींद” के कन्वेंशन को स्वीकार किया गया था.

यही नहीं, हर दिन 12 घंटे का काम का कामगारों/कर्मचारियों के स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ेगा. इस बारे में अनेकों शोध हो चुके हैं जो काम के लम्बे घंटों का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर पड़नेवाले नकारात्मक असर को रेखांकित करते हैं. इन शोधों से यह भी पता चलता है कि काम के लम्बे घंटे का श्रमिकों/कर्मचारियों की उत्पादकता, पहलकदमी और सृजनात्मकता पर भी उल्टा असर पड़ता है.

जीवन के लिए काम या काम के लिए जीवन?

लेकिन इन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि आखिर हम काम क्यों करते हैं? आखिर हमारे जीवन का मकसद क्या है? काम, जीवन के लिए है या जीवन, काम के लिए है? इस बात पर शायद ही कोई विवाद हो कि एक जीवन दर्शन के बतौर हम काम, जीने बल्कि बेहतर और अर्थपूर्ण जीवन के लिए करते हैं न कि हम सिर्फ काम करने के लिए ज़ी रहे हैं. काम जरूरी है लेकिन वह जीवन से ज्यादा जरूरी नहीं है. आखिर सारी आर्थिक तरक्की और मानवीय विकास का उद्देश्य लोगों के जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाना और उसे बेहतर करना है.

किसान दंपत्ति (पेंटिंग: एम् ऍफ़ हुसैन)

याद रहे कि दुनिया भर में सप्ताह में काम के दिनों और घंटों को कम करने की मांग 19वीं सदी के मध्य से ही शुरू हो गई थी. उस दौर में फैक्ट्रियों में मजदूरों को सप्ताह में बिना छुट्टी के न्यूनतम 60 से 70 घंटे और अनेकों मामलों में 100 घंटों तक काम करना पड़ता था. लेकिन ट्रेड यूनियनों और मजदूर आन्दोलनों की ओर से काम के घंटे घटाने और काम की परिस्थितियां बेहतर करने मांग उठने लगी थी. श्रमिकों के बढ़ते आन्दोलनों और रूसी क्रांति ने मिल मालिकों और उद्योगपतियों के साथ सरकारों को भी काम के घंटे घटाने पर मजबूर कर दिया.

इसी दौर में अमरीका की मशहूर फोर्ड मोटर्स के मालिक हेनरी फोर्ड ने 20वीं शताब्दी के तीसरे दशक में अपनी कंपनी में वेतन में बिना किसी कटौती के पांच दिन का सप्ताह और 40 घंटे काम की शुरुआत की. मजे की बात है कि इस फैसले से कंपनी को कोई नुकसान नहीं हुआ बल्कि श्रमिकों की उत्पादकता बढ़ गई, दुर्घटनाएं कम हुईं और कंपनी का मुनाफा बढ़ा. इसकी एक वजह यह भी थी कि जब श्रमिकों पर काम का बोझ कम हुआ, उनका शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य बेहतर हुआ और दो दिन के सप्ताहांत में छुट्टियाँ मनाने वे बाहर निकलने लगे तो कारों/गाड़ियों की मांग भी बढ़ी.

ऐसे ही, कार्नफ्लेक्स बनानेवाली मशहूर कंपनी केलोग के मालिक डब्ल्यू.के. केलोग ने 1930 के आखिरी महीने में प्रतिदिन काम के घंटे 8 से घटाकर 6 घंटे कर दिए. इससे केलोग को कोई नुकसान नहीं हुआ. उलटे कंपनी ने पाया कि काम के घंटे घटाना बिजनेस के लिहाज से फायदेमंद रहा. कामगारों की उत्पादकता में इजाफ़ा हुआ, दुर्घटनाएं 41 फीसदी तक घट गईं और कंपनी का बिजनेस बढ़ा. यही नहीं, जब लोगों को ख़ाली समय मिला तो उन्होंने उसका इस्तेमाल बच्चों के बेहतर देखभाल, गार्डनिंग, घूमने-फिरने और सामुदायिक कामों में किया.       

जल्दी ही यह सिर्फ दो या कुछ कंपनियों तक सीमित बात नहीं रह गई. शुरूआती संदेह और विरोध के बाद ज्यादातर मैन्यूफैक्चरिंग कंपनियों ने काम के घंटों में कटौती करनी शुरू कर दी. खासकर दूसरे विश्व युद्ध के बाद धीरे-धीरे ही सही लेकिन ज्यादातर विकसित देशों में काम के दिन और घंटे घटने का ट्रेंड आगे बढ़ने लगा. इस ट्रेंड के मद्देनजर 30 के दशक में जानेमाने अर्थशास्त्री जान मेनार्ड कींस ने यहाँ तक घोषणा कर दी थी कि वर्ष 2030 तक धीरे-धीरे सप्ताह में काम के घंटे घटकर 15 रह जायेंगे. कींस के मुताबिक, उस समय लोगों के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह होगी कि वे अपने खाली समय का इस्तेमाल कैसे करें?

काम के घंटे कम हो गए तो क्या हम बोर होने लगेंगे?

यहाँ तक कि जानेमाने विज्ञान लेखक आइजक आसिमोव ने यह भविष्यवाणी कर दी कि 21वीं सदी के दूसरे दशक में बोरडम सबसे बड़ी समस्या होगी और इसके कारण मनोचिकित्सा सबसे बड़ी मेडिकल विशेषज्ञता बन जायेगी. डच अर्थशास्त्री और इतिहासकार रटगर ब्रेग्मैन ने 2017 में छपी अपनी चर्चित किताब “यूटोपिया फार रियलिस्ट्स: द केस फार अ यूनिवर्सल बेसिक इनकम, ओपन बोर्डर्स एंड 15 आवर वर्कवीक” में इस बारे में विस्तार से चर्चा करते हुए बताया है कि 1970 के दशक में समाजशास्त्रियों ने आसन्न भविष्य में “काम के अंत” की घोषणा करनी शुरू कर दी थी और ऐसा लगने लगा था कि मानवता एक सच्चे आराम और सुख की क्रांति के कगार पर पहुँच गई है.   

लेकिन वह क्रांति नहीं हुई. उलटे 80 के दशक में अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन और ब्रिटिश प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर के नेतृत्व में एक प्रतिक्रांति शुरू हो गई. नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के बढ़ते दबदबे, निजीकरण-उदारीकरण-भूमंडलीकरण की आंधी और सोवियत संघ के अंत ने इतिहास के पहिये को जैसे रोक दिया. ट्रेड यूनियनें कमजोर पड़ने लगीं. मजदूर आन्दोलन बिखरने लगे और दबा दिए गए. इसके साथ ही ज्यादातर विकसित देशों काम के दिन और घंटों में कटौती का ट्रेंड रुक गया जबकि कई और देशों खासकर विकासशील/गरीब देशों में काम के घंटे बढ़ने लगे.

काम का बोझ हमारी जान ले रहा है

इसके साथ ही “ज्यादा कमाई के लिए अधिक से अधिक काम” इस नव उदारवादी दौर का आदर्श वाक्य बन गया. नीदरलैंड जैसे कुछ यूरोपीय देशों को छोड़कर जहाँ इन सालों में भी काम के घंटे घटे हैं या स्थिर हैं, अमेरिका और दूसरे कई विकसित देशों में औपचारिक या अनौपचारिक रूप से काम के घंटे बढ़े हैं. तकनीकी क्रांति खासकर स्मार्टफोन और इंटरनेट ने उद्योग और खासकर सेवा क्षेत्र के प्रोफेशनल्स के लिए काम के घंटे और आराम/फुर्सत के घंटों का फर्क मिटा दिया है. उनके लिए घर/बाज़ार/रेस्तरां/ट्रेवल भी एक्सटेंडड दफ़्तर बन गया है जहाँ वे 14-16 घंटे तक फोन, मेल और मेसेज के जरिये काम कर रहे हैं.

वर्क लाइन्फ़ बैलेंस

काम के बढ़ते दबाव के कारण अनियमित दिनचर्या, तनाव, वर्क स्ट्रेस और बर्न आउट जैसी मानसिक समस्याएं और डायबिटीज, ह्रदय रोग और दूसरी “लाइफस्टायल बीमारियाँ” एक साइलेंट महामारी का रूप ले रही हैं. आश्चर्य नहीं कि पिछले कुछ दशकों में काम और जीवन के बीच संतुलन यानी वर्क-लाइफ बैलेंस एक बड़ा मुद्दा बन गया है.  

इस बीच, कोरोना महामारी के दौरान “घर से काम (वर्क फ्राम होम)” ने घर को भी दफ़्तर और काम और फुर्सत/आराम के फर्क को बेमानी बना दिया है. रिपोर्टों के मुताबिक, बहुतेरी कम्पनियों खासकर टेक्नालाजी और सेवा क्षेत्र की कंपनियों को घर से काम का आइडिया बिजनेस के लिहाज से फायदेमंद लगने लगा है. कंपनियों ने पाया कि घर से काम करने के बावजूद प्रोफेशनल्स की उत्पादकता कम नहीं हुई है बल्कि वे हमेशा उपलब्ध हैं और ज्यादा काम कर रहे हैं. दूसरी ओर, कंपनियों के दफ़्तर का रेंटल से लेकर और खर्चे घट गए हैं.

वर्क-लाइफ बैलेंस की बात ही होगी या उसपर अमल भी?

हैरानी की बात नहीं है कि अनेकों बड़ी कंपनियों ने अगले साल या आनेवाले कई महीनों तक घर से काम को जारी रखने का एलान कर दिया है. लेकिन इसपर कोई चर्चा नहीं हो रही है कि पहले से काम के बोझ से दबे और घर/दफ़्तर के अंतर को बेमानी बना देने के कारण कई तरह की शारीरिक और मानसिक समस्याओं से जूझ रहे प्रोफेशनल्स और कार्मिकों पर इस नए ‘वर्क कल्चर’ का क्या असर पड़ेगा?

कहने की जरूरत नहीं है कि इन सबके बीच काम के दिन और घंटे घटाने और वर्क-लाइफ बैलेंस का मुद्दा नेपथ्य में चला गया है. लेकिन यह शायद सबसे सही समय है कि काम के दिन और घंटे घटाने के मुद्दे पर गंभीर चर्चा शुरू हो. खासकर भारत जैसे विकासशील देश के सन्दर्भ में यह मुद्दा बहुत मौजूं हो गया है क्योंकि भारत के कामगारों/कर्मचारियों को कई देशों की तुलना में सालाना ज्यादा घंटे काम करना पड़ता है.

पेंटिंग: वान गाग

रिपोर्टों के मुताबिक, भारत में औसतन एक कामगार/कर्मचारी को कोई 2117 घंटे काम करना पड़ता है जोकि कई देशों की तुलना में काफी ज्यादा है. उदाहरण के लिए, मुंबई में एक प्रोफेशनल/कर्मचारी को औसतन सालाना 2691 घंटे और दिल्ली में 2511 घंटे काम करना पड़ता है जबकि दुबई में 2323 घंटे, बीजिंग में 2096 घंटे, लन्दन में 2003 घंटे, टोकियो में 1997 घंटे और पेरिस में सिर्फ 1663 घंटे काम करना पड़ता है.     

ऐसे में, क्या भारत को सप्ताह में काम के दिनों को घटाकर 4 दिन करते हुए काम के घंटों को घटाकर 32 या 36 या फिर अधिकतम 40 घंटे करने की पहल नहीं करनी चाहिए? कई शोधों से यह साबित हो चुका है कि इससे न सिर्फ कामगारों के लिए वर्क-लाइफ बैलेंस को बेहतर करने में मदद मिलेगी, मानसिक/शारीरिक बीमारियाँ कम होंगी, बच्चों की देखभाल बेहतर होगी और उनकी उत्पादकता बढ़ेगी बल्कि इससे अर्थव्यवस्था को भी नई गति मिलेगी. लोग तीन दिन के सप्ताहांत में बाहर निकलेंगे, खर्च करेंगे, पर्यटन, होटल/रेस्तरां और आटोमोबाइल आदि कई क्षेत्रों को बढ़ावा मिलेगा. बेरोजगारी कम होगी क्योंकि कम्पनियाँ ज्यादा लोगों को हायर करेंगी.

ये काल्पनिक बातें नहीं हैं. शोधों से यह साबित हो चुका है. कोई 20 साल पहले फ़्रांस ने सप्ताह में काम के घंटे घटाकर 35 और नीदरलैंड ने 29 घंटे कर दिया था. लेकिन इससे वहां आसमान नहीं टूट पड़ा बल्कि वे विकसित देशों की श्रेणी में बहुत ऊपर हैं और वहां जीवन की गुणवत्ता भी बहुत बेहतर है.

यही नहीं, दुनिया के कई देश इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार कर रहे हैं. पिछले दिनों न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जसिंडा अर्डरन ने संकेत दिया है कि वे काम के दिन और घंटे घटाने पर गंभीरता से विचार कर रही है. भारत को इसमें पीछे क्यों रहना चाहिए?                                         

(नवभारत गोल्ड में पूर्व में प्रकाशित)

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आनंद प्रधान

देश-समाज की राजनीति, अर्थतंत्र और मीडिया का अध्येता और टिप्पणीकार